(जाहिद खान)
सुल्तान ए हिन्द कहे जाने वाले सूफ़ी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने चादर भेजी है। बहुत अच्छी बात यह है कि हर परंपरा विशेषकर उर्दू नाम से जुड़ी परंपरा को खत्म करने वाले नरेंद्र मोदी ने ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती को प्रधानमंत्रियों द्वारा हर साल चादर भेजे जाने वाली परंपरा के प्रति सम्मान दिखाते हुए लगातार 11 वीं बार 813 वें उर्स पर केंद्रीय मंत्री किरण रिजीजू के जरिए चादर भेजी।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तमाम कट्टर हिन्दू संगठनों के द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चादर ना भेजने की अपील के बावजूद चादरें भेजीं गयीं। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री को ऐसा ही होना चाहिए, शपथ लेते ही उसका अपना कोई धर्म सार्वजनिक तौर पर नहीं होता और देश का हर धर्म सार्वजनिक तौर पर उसका होता है।
गरीब नवाज़ ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सन् 1947 से देश के हर प्रधानमंत्री हमेशा से चादरें भेजते रहें हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी चादर भेजी तो दुनिया भर से तमाम लोग चादरें भेजते रहें हैं। तो दरअसल इन चादरों को भेजने का मकसद क्या होता है ?
दरगाहों पर चादरें चढ़ती रहीं हैं, और साल भर लोग चढ़ाते हैं , तो सवाल यह है कि किसी की कब्र से चादर का क्या संबंध है ? इसका क्या मकसद होता है? इसको जानने के लिए इतिहास में जाना पड़ेगा।
तो आईए चलते हैं… और देखते हैं…दरअसल ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती को हर दौर में हुक्मरानों से इज्ज़त मिलती रही है मगर उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की ज़िंदगी में देश के सात बादशाह हुए जिससे वह ना कभी मिले, ना उनकी मेहमाननवाज़ी कुबूल की ना ही मेजबानी की और ना उन्हें अपने यहां आने दिया, यहां तक कि किसी बादशाह ने अजमेर आकर उनसे मिलने की कोशिश भी की तो वह पिछले दरवाज़े से निकल गये।
उनकी सारी मुलाकातें सारी खिदमत सिर्फ गरीबों के लिए थीं, क्या हिन्दू क्या मुसलमान, बल्कि उस दौर में मुस्लिम थे कहां? तो गरीब हिन्दू ही उनके दरबार के लिए राजा और बादशाह थे।
ईरान के संजर में जन्मे ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ईरान के एक बड़े कारोबारी के पुत्र थे पर उनका मन कारोबार से अधिक अध्यात्म में ज्यादा लगता था इसलिए वह पिता के कारोबार और सांसारिक मोह-माया त्याग कर आध्यात्मिक यात्राएं करने लगे। उसी दौरान उनकी मुलाकात जाने-माने संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई थी। हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी ने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना शिष्य मान लिया और इसके बाद वह हज पर मक्का और मदीना गए और वहीं से वह बग़दाद, मुल्तान और लाहौर होकर दिल्ली से होते हुए अजमेर पहुंचे और अरावली की पहाड़ियों के बीच एक कुटिया बनाकर वहीं रह गये।
ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ऐसे समय में हिंदुस्तान पहुंचे थे जब शहाबुद्दीन गौरी और पृथ्वीराज के बीच तारायण की जंग के बाद हिंदुस्तान में मुस्लिम हुकूमत की शुरुआत हो रही थी। यह कुतुबुद्दीन ऐबक, अल-तमश, आराम शाह, रुकनुद्दीन फिरोज और रजिया सुल्तान का दौर था।
ख्वाजा मोइनुद्दीन को ग़रीब नवाज़ कहा जाता है क्योंकि वह खुद बहुत भूखे रहा करते थे और एक रोटी को थोड़ा सा खा लेते और फिर लपेट कर रख देते थे , उनकी वह एक रोटी कई-कई दिन चलती थी , केवल इसलिए कि उनके कम खाने से बचा हुआ अन्न किसी गरीब के पेट की भूख मिटा सके।
जो कोई भी उन्हें कुछ दे जाता उससे जरूरतमंद और भूखों के लिए हर वक्त लंगर तैयार रहता था, चुंकि उस दौर में देश में मुस्लिम ना के बराबर थे तो हिन्दू गरीबों की मदद ही उनका मकसद था और अपने दौर में रूहानियत के आखिरी हदों तक पहंचने की वजह से ही उन्हें बेहद शोहरत हासिल हुई।
उनके बारे में बहुत सी चमत्कारिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनका उल्लेख करूं तो लेख बहुत लंबा हो जाएगा।मगर इन्ही चमत्कारों के कारण उनकी शोहरत सुनने के बाद सुल्तान अल-तमश खुद उनसे मिलने पहुंचे थे मगर उन्होंने उनसे मिलने से इंकार कर दिया।
गौरी ने जब पृथ्वी राज चौहान पर जीत हासिल की तो जीत के बाद तमाम तोहफे लेकर ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के पास पहुंचे मगर उन्होंने किसी भी तरह का तोहफा लेने से ना सिर्फ मना कर दिया बल्कि मिलने से भी इंकार कर दिया। इसके अलावा रजिया सुल्तान ने भी कई बार उनके दरबार में हाजिरी दी और ख़्वाजा उनके आने की खबर से अपनी झोपड़ी के पिछले दरवाज़े से निकल जाते थे।
रूहानियत की आखिरी हदों तक पहुंचने और भूखे रहने की वजह से ही वह इतने कमज़ोर हो गये कि 1236 में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया और उसी झोपड़ी में उनकी कब्र बनाकर उन्हें दफ़न कर दिया गया।
इतिहास के अनुसार 1325 में पहली बार मुहम्मद बिन तुगलक ख़्वाजा की कब्र पर जाने वाला पहला सुलतान था । उन्होंने धंसी कब्र पर मिट्टी चढ़वाई और धूप और पानी से बचाने के लिए उस कब्र को एक मोटी चादर से ढक दिया।इसके 110 साल बाद मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी (1436-1469) को जब ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के बारे में पता चला तो वह भी अरावली की पहाड़ियों के बीच मौजूद ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की कब्र के पास पहुंचे और धंस गयी कब्र को मिट्टी डालकर ऊंचा कराया और उसे बारिश के पानी से सुरक्षित रखने के लिए मोटी कालीन चढ़ा कर कब्र को ढक दिया। और सुल्तान महमूद खिलजी के बाद उनके पुत्र गयासुद्दीन खिलजी ने पहली बार ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का स्थायी लकड़ी का मकबरा और उस पर एक सुंदर गुंबद बनवाया।
इसके बाद जब गयासुद्दीन खिलजी ने 1455 में अजमेर पर कब्जा कर लिया था तो उसने बाद में इसको पक्का करावाया।
दरगाह की एक दीवार पर लिखे शिलालेख के मुताबिक 1532 में इस दरगाह में गुंबद बनाया गया था जो आजतक कायम है। यह गुंबद कमल के रूप में सजाया गया और इसके टॉप पर रामपुर के नवाब हैदर अली खान के ज़रिए पेश किया गया सुनहरा मुकुट जड़ा हुआ है।
मुगलों की सल्तनत आने के बाद अकबर के शासन के बाद मुगलों का इस पर खास ‘करम’ रहा है । कहते हैं कि जब अकबर शिकार पर थे तो उन्होंने कुछ लोगों को ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की शान में गीत गाते हुए सुना जिसके बाद अकबर के मन में दरगाह पर जाने की ख्वाहिश जगी और इसके बाद से अकबर हर साल इस दरगाह पर पैदल जाया करते थे। मुग़ल बादशाह अकबर ने इस दरगाह में एक मस्जिद का निर्माण भी करवाया, जिसे अकबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता है।
यहां बड़ी तादाद में लोगों की अकीदत जुड़ी हुई और लंगर खाते देख अकबर ने तांबे की कुछ देंगें भी तोहफे में दीं जिससे ज्यादा तादाद में और आसानी से लंगर बनाया जा सके।अकबर के लिए दरगाह की अहमियत ना सिर्फ खुद के रूहानी फायदे के लिए थी बल्कि भारत में मुगल शासन की लोकप्रियता में भी इससे मदद मिली।
शाहजहां और अन्य मुग़ल बादशाहों ने भी दरगाह से अकीदत बनाई रखी और दरगाह के निर्माण में योगदान दिया। शाहजहां ने यहां एक खूबसूरत संगमरमर की मस्जिद बनवाई जिसे शाहजहां मस्जिद कहा जाता है।
मुगल शासक इस दरगाह से इतने करीब से जुड़े हुए थे कि इस दरगाह में एक भिश्ती की कब्र भी है, जिसने हुमायूं को गंगा में डूबने से बचाया था और जिसके बदले में हुमायूं ने भिश्ती को भारत पर आधे दिन का शासन दिया और उसने उस आधे दिन के शासन में चमड़े की मुद्रा चलवाई थी।
राजपूत शासक राजा जयसिंह ने दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चांदी का कटघरा बनवाया और आज भी इस कटघरे के अंदर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार है।
ब्रिटिश शासन के दौरान भी यह दरगाह रूहानियत का केंद्र बनी रही। दरगाह सभी धर्मों के मानने वालों के लिए श्रद्धा का केंद्र बन गई और यहां मुसलमानों से अधिक हिन्दू आते हैं। यहां आयोजित होने वाले सालाना उर्स और मेलों में लाखों लोग पहुंचते हैं।
कहने का अर्थ यह है कि हर दौर के बादशाहों, राजाओं और ब्रिटिशर्स और प्रधानमंत्रियों ने ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के दरबार में हाजिरी लगाई मगर हज़रत सिर्फ ग़रीब नवाज़ थे , उन्होंने जीते जी किसी को अपने करीब नहीं आने दिया।
तो ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चादर चढ़ाने का उद्देश्य उस दरगाह की हिफाज़त करने का संदेश और वचन है , जो 1325 से शुरू हुई और आजतक जारी है।
सुल्तान ए हिन्द ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ती चादरें देख कर ही देश में मौजूद सारी मज़ारों पर चादरें चढ़ाई जाने लगीं और लोग इसे पुण्य कमाने के तौर पर देखने लगे।
दरअसल यह चादरें वचन हैं, उस दरगाह की सुरक्षा के प्रति समर्पण हैं, जिसे उम्मीद है कि आने वाले समय में पूरा किया जाता हुई रहेगा।