ये वही वाक़िआ है जो इस्तिलाह में मेराज और इसरा के नाम से मशहूर है।
ज़्यादातर और भरोसेमन्द रिवायतों के मुताबिक़ ये वाक़िआ हिजरत से एक साल पहले पेश आया। हदीस और सीरत की किताबों में इस वाक़िए की तफ़सीलें बहुत-से सहाबा (रज़ि०) से रिवायत हुई हैं, जिनकी तादाद 25 तक पहुँचती है।
उनमें सबसे ज़्यादा तफ़सीली रिवायतें हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), हज़रत मालिक-बिन-सअसअ (रज़ि०) हज़रत अबू-ज़र-ग़िफ़ारी (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा से रिवायत हुई हैं। इनके अलावा हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०), हज़रत हुज़ैफ़ा-बिन-यमान (रज़ि०), हज़रत आयशा (रज़ि०) और कई दूसरे सहाबियों ने भी इसके कुछ हिस्से बयान किये हैं।
क़ुरआन मजीद यहाँ सिर्फ़ मस्जिदे-हराम (यानी काबा) से मस्जिदे-अक़सा (यानी बैतुल-मक़दिस) तक नबी (सल्ल०) के जाने का ज़िक्र करता है, और इस सफ़र का मक़सद ये बताता है कि अल्लाह अपने बन्दे को अपनी कुछ निशानियाँ दिखाना चाहता था। इससे ज़्यादा कोई तफ़सील क़ुरआन में नहीं बताई गई।
हदीस में जो तफ़सीलात आई हैं उनका ख़ुलासा ये है कि रात के वक़्त फ़रिश्ते जिबरील (अलैहि०) आप (सल्ल०) को उठाकर मस्जिदे-हराम से मस्जिदे-अक़सा तक बुराक़ पर ले गए। वहाँ आप (सल्ल०) ने नबियों के साथ नमाज़ अदा की। फिर वो आप (सल्ल०) को ऊपरी दुनिया की तरफ़ ले चले और वहाँ मुख़्तलिफ़ आसमानी तबक़ों में अलग-अलग जलीलुल-क़द्र (महान) पैग़म्बरों से आपकी मुलाक़ात हुई।
आख़िरकार आप (सल्ल०) इन्तिहाई बुलन्दियों पर पहुँचकर अपने रब के सामने हाज़िर हुए और इस हाज़िरी के मौक़े पर दूसरी अहम् हिदायतों के अलावा आप (सल्ल०) को पाँच वक़्तों की नमाज़ के फ़र्ज़ किये जाने का हुक्म हुआ।
इसके बाद आप बैतुल-मक़दिस की तरफ़ पलटे और वहाँ से मस्जिदे-हराम वापस तशरीफ़ लाए। इस सिलसिले में बहुत-सी रिवायतों से मालूम होता है कि आप (सल्ल०) को जन्नत और दोज़ख़ भी दिखाई गई।
साथ ही भरोसेमन्द रिवायतें भी ये बताती हैं कि दूसरे दिन जब आप (सल्ल०) ने इस वाक़िए का लोगों से ज़िक्र किया तो मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने इसका बहुत मज़ाक़ उड़ाया और मुसलमानों में से भी कुछ के ईमान डगमगा गए।
हदीस की ये तफ़सीलात क़ुरआन के ख़िलाफ़ नहीं हैं, बल्कि उसके बयान पर इज़ाफ़ा हैं, और ज़ाहिर है कि इज़ाफ़े को क़ुरआन के ख़िलाफ़ कहकर रद्द नहीं किया जा सकता। फिर भी अगर कोई शख़्स उन तफ़सीलात के किसी हिस्से को न माने जो हदीस में आई हैं तो उसे काफ़िर नहीं कहा जा सकता, अलबत्ता जो वाक़िआ क़ुरआन बयान कर रहा है उसका इनकार करना कुफ़्र कहलाएगा।
इस सफ़र की कैफ़ियत क्या थी? ये ख़्वाब की हालत में पेश आया था या जागने की हालत में? और क्या नबी (सल्ल०) जिस्मानी तौर पर ख़ुद तशरीफ़ ले गए या अपनी जगह बैठे-बैठे महज़ रूहानी तौर पर ही आप (सल्ल०) को ये सब दिखाया गया? इन सवालों के जवाब क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ ख़ुद दे रहे हैं। सुब्हानल्लज़ी असरा (पाक है वो जो ले गया ) से बयान शुरू करना ख़ुद बता रहा है कि ये कोई बहुत बड़ा ग़ैर-मामूली वाक़िआ था जो अल्लाह की ग़ैर-महदूद क़ुदरत से ज़ाहिर हुआ।
ज़ाहिर है कि ख़्वाब में किसी शख़्स का इस तरह की चीज़ें देख लेना या रूहानी तौर पर देखना ये अहमियत नहीं रखता कि उसे बयान करने के लिये इस तमहीद की ज़रूरत हो कि तमाम कमज़ोरियों और ख़राबियों से पाक है वो ज़ात जिसने अपने बन्दे को ये ख़्वाब दिखाया या रूहानी तौर पर ये कुछ दिखाया।
फिर ये अलफ़ाज़ भी कि एक रात अपने बन्दे को ले गया जिस्मानी सफ़र की साफ़ दलील हैं। ख़्वाब के सफ़र, या रूहानी सफ़र के लिये ये अलफ़ाज़ किसी तरह मुनासिब नहीं हो सकते। लिहाज़ा हमारे लिये ये माने बिना कोई चारा नहीं है कि ये सिर्फ़ एक रूहानी तजरिबा न था बल्कि एक जिस्मानी सफ़र और आँखों देखा नज़ारा था, जो अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को कराया।
अब अगर एक रात में हवाई जहाज़ के बिना मक्का से बैतुल-मक़दिस जाना और आना अल्लाह की क़ुदरत से मुमकिन था, तो आख़िर उन दूसरी तफ़सीलात ही को नामुमकिन कहकर क्यों रद्द कर दिया जाए, जो हदीस में बयान हुई हैं? मुमकिन और नामुमकिन की बहस तो सिर्फ़ उस सूरत में पैदा होती है, जबकि किसी जानदार के अपने इख़्तियार से किसी काम करने के मामले पर बात हो रही हो। लेकिन जब ज़िक्र ये हो कि ख़ुदा ने फ़ुलाँ काम किया, तो फिर इमकान का सवाल वही शख़्स उठा सकता है जिसे ख़ुदा के क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) होने का यक़ीन न हो।
इसके अलावा जो दूसरी तफ़सीलात हदीस में आई हैं उनपर हदीस को न माननेवालों की तरफ़ से कई एतिराज़ात किये जाते हैं, मगर उनमें से सिर्फ़ दो ही एतिराज़ ऐसे हैं जो कुछ वज़न रखते है। एक ये कि इससे अल्लाह का किसी ख़ास जगह पर रहना ज़रूरी हो जाता है, वरना उसके सामने बन्दे की पेशी के लिये क्या ज़रूरत थी कि उसे सफ़र करा के एक ख़ास जगह तक ले जाया जाता?
दूसरा ये कि नबी (सल्ल०) को दोज़ख़ और जन्नत का मुशाहदा और कुछ लोगों के अज़ाब में घिरे होने का मुआयना कैसे करा दिया गया, जबकि अभी बन्दों के मुक़द्दिमों का फ़ैसला ही नहीं हुआ है? ये क्या कि इनाम व सज़ा का फ़ैसला तो होना है क़ियामत के बाद और कुछ लोगों को सज़ा दे डाली गई अभी से?
लेकिन असल में ये दोनों एतिराज़ भी कम समझी का नतीजा हैं। पहला एतिराज़ इसलिये ग़लत है कि ख़ालिक़ (पैदा करनेवाला) अपनी ज़ात में तो बेशक हर तरह की पाबन्दी से आज़ाद है, मगर मख़लूक़ (पैदा किये हुओं) के साथ मामला करने में वो अपनी किसी कमज़ोरी की बुनियाद पर नहीं, बल्कि मख़लूक़ की कमज़ोरियों की वजह से महदूद तरीक़ा इस्तेमाल करता है जिसे एक इन्सान सुन और समझ सके, हालाँकि उसका कलाम अपनी जगह ख़ुद एक ऐसी शान रखता है जो किसी भी तरह की पाबन्दी से आज़ाद है।
इसी तरह जब वो अपने बन्दे को अपनी सल्तनत की अज़ीमुश्शान निशानियाँ दिखाना चाहता है तो उसे ले जाता है और जहाँ जो चीज़ दिखानी होती है उसी जगह दिखाता है, क्योंकि वो सारी कायनात को एक ही वक़्त में उस तरह नहीं देख सकता जिस तरह ख़ुद देखता है। ख़ुदा को किसी चीज़ को देखने के लिये कहीं जाने की ज़रूरत नहीं होती, मगर बन्दे को होती है। यही मामला ख़ालिक़ के सामने हाज़िर होने का भी है कि ख़ालिक़ अपने आपमें ख़ुद किसी जगह पर ठहरा हुआ नहीं है, मगर बन्दा उसकी मुलाक़ात के लिये एक जगह का मोहताज है जहाँ उसके लिये अल्लाह के जलवों को मरकूज़ (केन्द्रित) किया जाए। वरना उस हस्ती से जो किसी भी तरह की पाबन्दियों से आज़ाद है उस बन्दे के लिये मुलाक़ात मुमकिन नहीं है जो पाबन्दियों में जकड़ा हुआ है।
रहा दूसरा एतिराज़ तो वो इसलिये ग़लत है कि मेराज के मौक़े पर बहुत-सी हक़ीक़तें नबी (सल्ल०) को दिखाई गई थीं, उनमें कुछ हक़ीक़तों को मिसाल के तौर पर दिखाया गया था। मसलन एक फ़ित्ना फैलानेवाली बात की ये मिसाल कि एक ज़रा से सूराख़ में से एक मोटा-सा बैल निकला और फिर उसमें वापस न जा सका। या ज़िना करने वालों की ये मिसाल कि उनके पास ताज़ा और बेहतरीन गोश्त मौजूद है, मगर वो उसे छोड़कर सड़ा हुआ गोश्त खा रहे हैं।
इसी तरह बुरे आमाल की जो सज़ाएँ आप (सल्ल०) को दिखाई गईं वो भी मिसाल के रंग में आख़िरत की सज़ाओं का पेशगी नज़ारा था। असल बात जो मेराज के सिलसिले में समझ लेनी चाहिए वो ये है कि पैग़म्बरों (अलैहि०) में से हर एक को अल्लाह ने उनके ओहदे के हिसाब से आसमानों और ज़मीन की चीज़ें दिखाई हैं और माद्दी (भौतिक) परदों को बीच से हटाकर आँखों से वो हक़ीक़तें दिखाई हैं जिनपर बिन देखे ईमान लाने की दावत देने पर वो मुक़र्रर किये गए थे, ताकि उनका मक़ाम एक फ़लसफ़ी के मक़ाम से बिलकुल अलग हो जाए।
फ़लसफ़ी जो कुछ भी कहता है अनुमान और अटकल से कहता है, वो ख़ुद अगर अपनी हैसियत जानता हो तो कभी अपनी किसी राय की सच्चाई पर गवाही न देगा। मगर पैग़म्बर जो कुछ कहते हैं वो सीधे तौर पर इल्म और देखने की बुनियाद पर कहते हैं और वो दुनियावालों के सामने ये गवाही दे सकते हैं कि हम इन बातों को जानते हैं और ये हमारी आँखों देखी हक़ीक़तें हैं।
सूरह बनी इसराइल -17
आयत-1
-तफहीमुल क़ुरान