(दीन मुहम्मद मामलीका)
कल मुझे सिद्दीक अहमद मेव ने एक किताब ‘रब का घर’ ससम्मान भेंट की ।मैंने रात में ही उसे पढ़ा भी । कविता कहूं या शायरी कहूं उसमें अल्लाह के घर(क़ाबा) से राबता है ।कई बहुत अच्छी कविताएं हैं मौजूदा हालात पर ।मौनी बाबा और इन्सानियत में आग की चिंगारी का काम करते बाबाओं/धर्मगुरूओं पर भी निशाना साधा है ।कोरोना महामारी का ताण्डव और सरकार का दैत्य रूप भी पढ़ने को मिला। किसान मजदूर की मज़बूरी और सरकारी अत्याचारों पर शायरी हुई है। टूटते सामाजिक ताने-बाने पर, शिक्षा की रौशनी और महिमा का भी वर्णन है। भारत में हो रही लोकतंत्र की हत्या और धर्म के नाम पर धन्धा पेश करते वक्त इस कारोबार पर बेहतरीन तरीके से शायरी की है ।
मैंने कभी पढ़ा था एक फूल की चाह, सिद्दीक साहब ने एक दिए/दीपक की रौशनी को बेहतरीन तरीके से उकेरा है। हां मैं मज़दूर हूं, में बहुत अच्छा लिखा है तकरीबन हर विषय पर अच्छी शायरी की है। पीर पराई पर ऐसा लिखा है कि कौन शख्स दूसरे दुख को समझेगा जो सर्व सम्मान अर्जित, सारे सुखों को भोग रहा है वो दूसरे गरीबों, बेसहारा,और मजदूरों और मज़बूरों की चीखों की कीमत क्या जाने ?
कुछ लाइनें इस किताब का मुखड़ा खुदा का घर की लिख रहा हूं । जब हाजी जी हज़ पर गए तो लिखा, वहां की शान को:—
रब के घर की छवि देखकर,हमने लोग बिलखते देखे ।
ना चढ़ावा ना दान पात्र है , फिर भी ठाट निराले देखे ।
रोते और गिड़गिड़ाते देखे,रब की चौखट पर झुकते देखे।
काले गोरे अरबी-अजमी , सारे एक पांत में देखे ।
ना झगड़ा ना शोर-शराबा, सारे मग्न जिक्र में देखे ।
दुनिया ना सियासत की बातें, सब रब की इबादत में देखे ।
धन मांगा ना बीरा ना बीरा रियासत,सारे तौबा करते देखे।
ताकतवर और धनी घणे भी,रब के दर गिड़गिड़ाते देखे ।
नबी के घर अर रब के दर पै, दुनिया वाले झुकते देखे।
मेवात के एक होनहार संघर्षशील समाज सेवक के साथ साथ इतिहासकार, साहित्यकार और एक बेहतरीन कवि/शायर के रूप में सिद्दीक मेव एक और मील के पत्थर साबित हुए हैं।