(रईस खान)
यौम-ए-आशूरा का मक़ाम बहुत ऊँचा है, लेकिन करबला की कुर्बानी ने इसे एक ऐसा दिन बना दिया है जो सिर्फ तारीख़ नहीं, जज़्बा बन चुका है। इसलिए यह दिन सिर्फ याद करने का नहीं, बल्कि हुसैनी उसूलों पर चलने का भी है — यानी सच्चाई, इन्साफ, और जुल्म के खिलाफ खड़ा होने का।
यौम-ए-आशूरा (10 मुहर्रम) को हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके जानिसारों की कुर्बानी को याद करना इस दिन की अहम रूहानी अहमियत में से है। हालांकि इस दिन की तारीख इस्लामी तारीख में कई और अहम वाक़यात से भी जुड़ी हुई है — जैसे हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की क़ौम को फिरऔन से निजात मिलना, आदम अलैहिस्सलाम की तौबा कुबूल होना— लेकिन करबला का वाक़या इस दिन को एक अलग ही दर्दनाक और असरअंगेज़ पहलू देता है।
इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीद की बेदीन हुकूमत के खिलाफ खड़े होकर इस्लामी उसूलों की हिफाज़त की। करबला हमें यह सिखाता है कि जुल्म और फसाद के सामने झुकना इमानदारी नहीं है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कुर्बानी ने इस्लाम की रूह को जिन्दा रखा और हर दौर के मुसलमान को इंसाफ और सच्चाई के लिए खड़े होने का पैग़ाम दिया।
इसलिए मुसलमान इस दिन को ग़म और मातम के साथ गुज़ारते हैं । दुआ, रोज़ा और तौबा करते हैं । इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सीरत और पैग़ाम को समझने और आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं।