(रईस खान)
मुहर्रम हमें केवल शोक मनाने की नहीं, बल्कि इंसानियत, भाईचारे और कुर्बानी के मूल्यों को समझने और अपनाने की प्रेरणा देता है। लंगर और सबील जैसे आयोजन सिर्फ धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि सामाजिक ज़िम्मेदारी भी हैं, जो समाज को जोड़ते हैं, मज़बूत बनाते हैं और आने वाली पीढ़ियों को सेवा, एकता और बलिदान का पाठ पढ़ाते हैं।
इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना, मुहर्रम, मुसलमानों के लिए ग़म और इबादत का महीना है। यह वह समय है जब पूरी दुनिया के मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके 72 साथियों की कर्बला में दी गई शहादत को याद करते हैं।
मुहर्रम के दिनों में लंगर और सबील (ठंडे पानी या शरबत की व्यवस्था) की परंपरा बहुत आम है। यह एक ऐसा काम है जिसमें अमीर-गरीब, छोटे-बड़े का भेद नहीं होता। हर कोई इसमें बराबर का भागीदार होता है। कोई खाने का इंतज़ाम करता है, कोई पानी पिलाता है, तो कोई साफ-सफाई करता है। यह सेवा भाव लोगों को एक-दूसरे से जोड़ता है और समाज में इंसानियत और बराबरी की फीलिंग को मज़बूत करता है।
मुहर्रम की मजलिसों में इमाम हुसैन (अ.स.) की बहादुरी, सब्र, और ज़ुल्म के खिलाफ डटकर खड़े होने की मिसालें पेश की जाती हैं। ये केवल धार्मिक बैठकों तक सीमित नहीं होतीं, बल्कि सामाजिक संदेश भी देती हैं। जैसे कि अन्याय का विरोध करना, सत्य का साथ देना और मानवता की रक्षा करना।
जुलूसों में लाखों लोग शामिल होते हैं, और वहां भी अनुशासन, सहयोग, और भाईचारे का अद्भुत प्रदर्शन देखने को मिलता है। लोग अपने-अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभाते हैं, जिससे एक संगठित समाज की तस्वीर सामने आती है।
मुहर्रम के आयोजन में शिया और सुन्नी दोनों समुदाय मिलकर हिस्सा लेते हैं। कई स्थानों पर अन्य धर्मों के लोग भी लंगर, सबील या सुरक्षा व्यवस्था में सहयोग करते हैं। यह दिखाता है कि मुहर्रम केवल एक मज़हबी पर्व नहीं, बल्कि मानवता और सामाजिक एकता का अवसर है।
मुहर्रम के कार्यक्रमों में युवाओं की भागीदारी उल्लेखनीय होती है। वे लंगर में सेवा करते हैं, तबर्रुक बांटते हैं, सबील चलाते हैं और मजलिसों के आयोजन में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। इससे उनमें नेतृत्व, टीमवर्क और समाज सेवा की भावना पैदा होती है। जो किसी भी समाज के विकास के लिए ज़रूरी है। इसलिए मुहर्रम को एकता और भाईचारे का संगम माना जाता है।