(रईस खान)
अक्सर लोग सवाल करते हैं कि मोहर्रम में कर्बला के शहीदों को किस तरह याद किया जाए..? हमारे लिए सबसे बेहतर रास्ता है अहले बैत का तरीका है।
अहले बैत का करबला के शहीदों का ग़म मनाने का तरीका बहुत ही गहरा, आत्मिक और भावनात्मक होता था। यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि एक ज़िंदा याद और जुल्म के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक था।
अहले बैत का ग़म मनाना सिर्फ़ एक रस्म नहीं था, बल्कि एक तहरीक (आंदोलन) था, जुल्म के खिलाफ़, इंसाफ़ की खातिर, और इंसानियत की हिफ़ाज़त के लिए।
इमाम अली ज़ैनुल आबिदीन (अ.स), जो करबला के इकलौते जीवित इमाम थे, तमाम उम्र करबला को याद करके रोते रहे। जब भी खाना सामने आता या पानी दिया जाता, वह याद करते कि उनके अज़ीज़ भूखे-प्यासे शहीद हुए।वह अक्सर फ़रमाते: “हर मोमिन को चाहिए कि वह हमारे ग़म में रोए।”
अहले बैत की महिलाओं, खासकर बीबी ज़ैनब (स.अ) और बीबी उम्मे कुलसूम, ने कूफ़ा और शामी दरबारों में इमाम हुसैन (अ.स) की शहादत और यज़ीद के ज़ुल्म को बेबाकी से बयान किया।
यह पहला और सबसे ताक़तवर तरीका था जिससे करबला की याद ज़िंदा रखी गई, बोलकर, बयान करके।
अहले बैत के घर में ग़म के मौके पर अशआर और मर्सिये पढ़े जाते थे। इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अ.स) ने शायरों को तशवीक दी कि वे करबला के ग़म को शेरों में बयान करें, जैसे कि फर्ज़दक, क़ुमैत, और बाद में दैबल ख़ज़ाई वग़ैरह।
अहले बैत के घर में मुहर्रम और सफ़र के महीनों में सादगी रहती थी। कोई ख़ुशी या ज़ाहिरी ज़ेब-ओ-ज़ीनत नहीं होती थी। पहनावा सादा होता, और घर का माहौल ग़मगीन रहता।
अहले बैत हमेशा यज़ीद और उसके ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करते रहे। करबला को सिर्फ ग़म के तौर पर नहीं, बल्कि इंसाफ़ और हक़ की आवाज़ के तौर पर ज़िंदा रखा।
जब इस क़ौम ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का समर्थन नहीं किया (और यहां तक कि अहल अल-बैत के कत्लेआम को भी सही ठहराया) तो यह गाजा के लोगों का समर्थन क्या करेगी ?