इमाम हुसैन रजि से सीखा है ईरान ने अपना सबक

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ईरान ने ज़ालिम ताकतों और अपने दुश्मनों के सामने अपने कर्तव्य को हज़रत इमाम हुसैन बिन अली (अ.स.) के मकतब से सीखा है और वह उस पर अमल करता है।

सय्यदुश्शुहदा (अ.स.) ने अपने समय के “ज़ालिम शासक” के खिलाफ़ अपने क़याम व महाआंदोलन के कारण को समझाते हुए उसके सामने खड़े होने को अपना फ़र्ज़ बताया और फरमाया था: “जो व्यक्ति ज़ालिम सत्ता के सामने ज़ुबानी या अमली रूप से मुक़ाबला नहीं करता, वह उसी ज़ालिम की तरह जहन्नमी होगा।”

आज ईरानी राष्ट्र, सय्यदुश्शुहदा (अ.स.) की राह पर चलते हुए और इस्लामी क्रांति के दो इमामों – इमाम ख़ुमैनी रह. और इमाम ख़ामेनेई के मार्गदर्शन में अपने समय के ज़ालिम शासक यानी कुफ्र, साम्राज्यवाद और ज़ायोनिज़्म के गठजोड़ के सामने अपना कर्तव्य पहचान चुका है और उसे पूरी तरह निभा रहा है। यही वजह है कि वह अमेरिका और ज़ायोनिज़्म के सामने झुकने का इरादा नहीं रखता, जो इस राष्ट्र के बेटों को शहीद करके और खून से खेलकर एक मजबूत इस्लामी ईरान को बनने से रोकना चाहते हैं।

ईरानी राष्ट्र ने पहले चरण में इमाम ख़ुमैनी (रह.) के नेतृत्व में अल्लाह के वादे “وَلَيَنْصُرَنَّ اللَّهُ مَنْ يَنْصُرُهُ” (और अल्लाह उनकी ज़रूर मदद करेगा जो उसकी मदद करेगा) को इस्लामी क्रांति की सफलता, थोपे गए युद्ध में दुश्मनों के शर से बचाव और क्रांति के पहले दशक में हत्याओं के दौरान अनुभव किया है। अब दूसरे चरण में इमाम ख़ामेनेई की रहनुमाई में उसे कोई संदेह नहीं कि दुनिया की ज़ालिम ताकतों के सामने उसी व्यावहारिक रुख़ को बनाए रखने और उनके विस्तृत गठजोड़ के सामने प्रतिरोध व अडिग रहने से वह एक बार फिर खुद को अल्लाह की मदद का हक़दार पाएगा और इस्लामी ईरान के लिए दुगनी शक्ति का प्रबंध करेगा।

ईरानी राष्ट्र ने हज़रत इमाम हुसैन बिन अली (अ.स.) की विलायत की निरंतरता और अपनी धरती पर राजनीतिक इस्लाम की हुकूमत की बरकत से इस कर्तव्य व दायित्व को पहचाना है। यह दायित्व इमाम ख़ुमैनी और इमाम ख़ामेनेई द्वारा, जो सय्यदुश्शुहदा (अ.स.) की विलायत के वारिस और इमाम-ए-ज़माना (अ.स.) के नाएब हैं, बार-बार समझाया और रेखांकित किया गया है। विलायतपरस्त ईरानी राष्ट्र ने दुनिया के ज़ालिमों के सामने डटकर खड़े होने को ईरान और उसके मुस्लिम समाज की इज़्ज़त को बचाने का सबसे बेहतर और कारगर नुस्ख़ा पाया है। लगभग आधी सदी से वह उस राजनीतिक इस्लाम को थामे हुए है जिसके केंद्र में हुसैनी आशूरा का मकतब है और इसी के सहारे उसने अपने देश और उसके भौतिक व आध्यात्मिक हितों की हिफ़ाज़त की है।

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