राजती सलमा ,जिन्हें रजथी सलमा, Rajathi Samsudeen, या कवियत्री सलमा नाम से भी जाना जाता है, एक प्रसिद्ध तमिल कवयत्री, लेखक और अधिकार कार्यकर्ता हैं और अब तमिलनाडु से राज्य सभा सदस्य बन चुकी हैं। संसद के लिए चुनी गई वह 18 वीं मुस्लिम महिला सांसद हैं।
भारत एक लोकतांत्रिक मुल्क है, जहाँ हर नागरिक को बराबरी का हक़ हासिल है, चाहे वो किसी भी मज़हब, जाति या लिंग से ताल्लुक रखता हो। मगर जब बात राजनीति की होती है, ख़ासकर संसद जैसी सर्वोच्च संस्था की, तो वहाँ पर मुस्लिम महिलाओं की मौजूदगी बेहद कम नजर आती है। आखिर इसकी वजह क्या है ?
भारत को आज़ाद हुए 75 से ज़्यादा साल हो चुके हैं, लेकिन इन सालों में सिर्फ 18 मुस्लिम महिलाएं लोकसभा तक पहुँच पाई हैं। ये संख्या बहुत कम है, ख़ासकर जब आप ये सोचें कि देश की कुल आबादी में मुस्लिमों का हिस्सा लगभग 20% है और मुस्लिम महिलाओं की संख्या करोड़ों में है।
यानी हर चुनाव में, हर पाँच साल में, औसतन एक मुस्लिम महिला भी संसद नहीं पहुँच पाती।
कुछ ऐसे नाम सामने आते हैं जिन्होंने इतिहास में जगह बनाई है। बेगम आबिदा अहमद उत्तर प्रदेश से,भारत के पाँचवे राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद की पत्नी, लोकसभा सांसद बनीं। सैयदा सैयदैन हामिद समाज सेवा और महिला अधिकारों के लिए पहचानी जाती हैं।महमूदा अहमद अली जो पश्चिम बंगाल से थीं। रहीमा बानो 1970 के दशक में पहली मुस्लिम महिला सीधे लोकसभा में चुनी गईं।
इसके अलावा कुछ महिलाएं राज्यसभा में नामित की गईं, मगर सीधे जनता द्वारा चुनी जाने वाली लोकसभा में उनकी संख्या बहुत कम रही।
राजनीतिक दल उदासीनता के कारण ज़्यादातर मुस्लिम महिलाओं को चुनावी टिकट ही नहीं देते हैं। उन्हें लगता है कि मुस्लिम पुरुष ज़्यादा वोट ला सकते हैं या महिला प्रत्याशी जीत नहीं पाएगी। इसके अलावा मुस्लिम समाज की एक बड़ी आबादी अब भी शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के मामले में पीछे है, ख़ासतौर पर महिलाओं के मामले में। कई मुस्लिम परिवारों में लड़कियों को राजनीति या सार्वजनिक जीवन में आने की खुली छूट भी नहीं होती है।
हालांकि अब मुस्लिम महिलाएं ज्यादा पढ़-लिख रही हैं, कॉलेज-यूनिवर्सिटी तक पहुँच रही हैं। यह बदलाव आगे चलकर राजनीति में असर डालेगा। कई मुस्लिम महिलाएं अब नगरपालिका, पंचायत और मेयर चुनावों में खड़ी हो रही हैं । यहीं से नेतृत्व की ट्रेनिंग मिलती है।
मुस्लिम महिलाओं को लीडरशिप के लिए तैयार करना होगा। हालांकि संसद में महिला आरक्षण बिल पारित हो चुका है, जिससे उम्मीद है कि मुस्लिम महिलाओं को भी ज़्यादा सीटें मिलेंगी। मुस्लिम समाज को खुद अपने घरों में लड़कियों को आगे बढ़ने देना होगा ,चाहे वो वकील बनें, डॉक्टर, टीचर या नेता। और मीडिया को चाहिए कि वो मुस्लिम महिला लीडर की कहानियों को सामने लाए, ताकि नई पीढ़ी प्रेरणा ले सके। सरकार और एनजीओ को मुस्लिम महिलाओं के लिए लीडरशिप ट्रेनिंग कार्यक्रम शुरू करने चाहिए ताकि वो चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो सकें।
भारत में मुस्लिम महिलाएं केवल एक पहचान तक सीमित नहीं रह सकतीं। वो पढ़ी-लिखी, सोचने‑समझने वाली, अपने हक़ के लिए खड़ी होने वाली सशक्त महिलाएं हैं। अब वक्त आ गया है कि वो सिर्फ पर्दे के पीछे नहीं, बल्कि संसद में बैठकर देश की नीतियाँ तय करने में भी भागीदार बनें।