(रईस खान)
2004 के आम चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता और “शाइनिंग इंडिया” का नारा सत्ता वापसी का विश्वास दिला रहा था। लेकिन सोनिया गांधी ने इसे चुनौती दी। उन्होंने कांग्रेस को “गरीबों और किसानों की आवाज़” बनाकर मैदान में उतारा और अंततः एनडीए सत्ता से बाहर हो गया। उस वक्त सोनिया ने लगभग अकेले ही मोर्चा संभाला था।
आज लगभग दो दशक बाद राहुल गांधी उसी तरह का राजनीतिक अवसर तलाश रहे हैं। वे लगातार “वोट चोरी”, “संविधान पर खतरा”, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों को उठाकर मोदी सरकार को बैकफुट पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। खास बात यह है कि इस बार वे अकेले नहीं हैं, इंडिया गठबंधन उनके साथ खड़ा है।
फिर भी परिस्थिति 2004 से बिल्कुल अलग है। मोदी तीन बार लगातार जनता से बहुमत लेकर आए हैं और “मजबूत नेतृत्व” की छवि के कारण भाजपा का जनाधार अटल युग की तुलना में कहीं अधिक व्यापक है। इसके अलावा मीडिया और डिजिटल नैरेटिव पर भाजपा का दबदबा भी विपक्ष के लिए कठिन चुनौती बना हुआ है।
राहुल की ताकत यह है कि वे अब लगातार एक “जन नेता” के तौर पर दिखने लगे हैं। यात्रा, पदयात्रा और संसद में तेज़ आक्रामकता ने उन्हें केंद्र में ला दिया है। लेकिन विपक्ष की कमजोरी यह है कि अभी तक जनता के सामने ठोस वैकल्पिक चेहरा और साझा आर्थिक-राजनीतिक एजेंडा नहीं है। केवल “मोदी विरोध” से ज़मीनी वोट बैंक में बड़ा असर डाल पाना कठिन है।
सोनिया गांधी का 2004 का अभियान सफल इसलिए रहा क्योंकि उन्होंने “शाइनिंग इंडिया” को सीधे किसानों, मजदूरों और गरीब तबके की ज़िंदगी से जोड़ दिया। राहुल को भी “वोट चोरी” और “संविधान संकट” जैसे मुद्दों को बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की आमदनी से जोड़कर जनता की रोज़मर्रा की तकलीफों का मुद्दा बनाना होगा। अगर यह विमर्श सिर्फ “सिस्टम की गड़बड़ी” तक सीमित रहा, तो यह बौद्धिक बहस बनकर रह जाएगा, जनआंदोलन नहीं।
निष्कर्ष यही है कि राहुल गांधी के पास सरकार को बैकफुट पर लाने की गुंजाइश है, लेकिन सोनिया गांधी जैसी निर्णायक सफलता के लिए उन्हें दो चीजें करनी होंगी, संवैधानिक संकट के मुद्दे को सीधे आम जनता की ज़िंदगी से जोड़ना। दूसरा विपक्षी एकता को औपचारिक गठबंधन से आगे ले जाकर एक ठोस विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना।
आने वाले महीनों में यही तय करेगा कि राहुल का नैरेटिव सोनिया गांधी के 2004 वाले अभियान जैसा असर डाल पाएगा या नहीं।