(रईस खान)
कृष्ण जन्माष्टमी का ज़िक्र आते ही दिलों में सरूर और मुसर्रत की लहर दौड़ जाती है। यह सिर्फ़ एक त्योहार नहीं बल्कि इश्क़, वालिहाना वारफ़्तगी और रूहानी सरूर का पैग़ाम है। इसी इश्क़े हक़ीक़ी की एक ज़िंदा मिसाल मौलाना हसरत मोहानी की शख़्सियत है।
मौलाना हसरत न सिर्फ़ एक बड़े इन्क़लाबी और रहनुमा थे बल्कि वह दिल से एक आशिक़े कृष्ण भी थे। उनके कलाम में जिस वालिहाना अंदाज़ से श्रीकृष्ण जी का ज़िक्र आता है, वह इश्क़ और इर्फ़ान की अ’ला मंज़िलों को ज़ाहिर करता है।
हसरत फ़रमाते हैं:
किसी का हाल क्या है यह बता न सकूँगा
मगर यह जान लो, मैं तो मदीना जा न सकूँगा
मगर जो रास का मौसम आया, याद आ गई
तो मैं भी कह उठा, श्रीकृष्ण को भुला न सकूँगा
यह अशआर बताते हैं कि उनका दिल सिर्फ़ ख़ानक़ाह या मस्जिद में क़ैद नहीं था बल्कि वृंदावन की रासलीला में भी सरूर और इश्क़ तलाश करता था।
एक और जगह फ़रमाते हैं:
छोड़ के सब रस्मो-रह, दिल में यही नारा रहा
है अगर राहत किसी में तो है कृष्ण के क़दमों में
यह सिर्फ़ शायरी नहीं बल्कि इश्क़ की वह कैफ़ियत है जिसने मज़हब, फ़िरक़ा और रिवायत की सब सरहदें मिटा दी थीं।
हसरत के नज़दीक कृष्ण महज़ एक देवता नहीं बल्कि इश्क़ और सरूर का आफ़ताब थे। वह समझते थे कि कृष्ण के क़दमों में इंसान को वही सरशारी मिलती है जो एक सूफ़ी को हक़ तआला के ज़िक्र में मिलती है।
इसी लिये हसरत का मशहूर क़ौल है:
“चाहे रखो मस्जिद में, चाहे रखो मठ में
मेरे लिये राहत तो है बस कृष्ण के क़दम में”
यह अशआर महज़ अक़ीदत नहीं बल्कि रूहानी वहदत की दलील हैं। हसरत के नज़दीक कृष्ण इश्क़ की सबसे अ’ला अलामत थे और राधा–कृष्ण का पैग़ाम इंसान को फ़ना फ़िल इश्क़ की मंज़िल दिखाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी के मौक़े पर जब हम देवी–देवताओं का ज़िक्र करते हैं तो हसरत मोहानी की यह ग़ैर-मामूली वारफ़्तगी हमें याद दिलाती है कि इश्क़े हक़ीक़ी की कोई सरहद नहीं। चाहे सूफ़ी का दिल हो या रास की महफ़िल – जहाँ मोहब्बत है, वहीं ख़ुदा है।