(रईस खान)
उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में इमाम अहमद रजा खान का उर्स मनाया जा रहा है।उनकी शख़्सियत को अक्सर लोग सिर्फ़ एक मज़हबी आलिम या नातगो शायर के तौर पर जानते हैं। लेकिन उनका असल क़द इससे कहीं ज़्यादा बुलंद था। वे अपने दौर के ऐसे आलिम थे जिन्होंने दीन के साथ-साथ साइंस और तालीम के मैदान में भी बेहतरीन काम किए। उनकी लिखी किताबें और इल्मी कारनामें आज भी इस बात का सबूत हैं कि उन्होंने इंसान को मज़हबी और दुनियावी दोनों तालीम को साथ लेकर चलने का रास्ता दिखाया।
साइंस के मैदान में उनका काम सबसे पहले फ़लक़ियात यानी खगोल विज्ञान से जुड़ता है। उनकी मशहूर किताब “फौज़े मुबीन दर रद्दे हरकत-ए-ज़मीं” उस दौर की सबसे अहम कृतियों में गिनी जाती है। इस किताब में उन्होंने धरती की हरकत के बारे में चल रही यूरोपीय थ्योरी पर गहराई से विचार किया और इस्लामी इल्म तथा साइंस के तर्कों के साथ अपना दृष्टिकोण पेश किया। उनके हिसाब से ज़मीन अपनी जगह पर स्थिर है और सितारों तथा ग्रहों की गति अलग है। चाहे कोई उनकी राय से सहमत हो या न हो, लेकिन यह हक़ीक़त है कि उस समय एक मज़हबी आलिम का साइंटिफ़िक मुद्दों पर इतनी गंभीरता से कलम उठाना अपने आप में बड़ी बात थी।
गणित में भी उनका काम क़ाबिले-ग़ौर है। उन्होंने “अल-कौकब-अद्दुरी” जैसी किताबें लिखीं, जिनमें खगोल विज्ञान और गणितीय मसलों को आसान भाषा में समझाया। वे नमाज़ के वक़्त, रोज़े की शुरुआत और क़िबले की सही दिशा तय करने में गणित और साइंस की मदद लेते थे। इस तरह उन्होंने दिखाया कि इबादतें भी इल्म और हिसाब से जुड़ी होती हैं। इसी तरह तिब्ब यानी चिकित्सा विज्ञान पर भी उनका काम मिलता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि इलाज हमेशा तजुर्बे, इल्म और अक़्ल के साथ होना चाहिए। यह सोच उनके गहरे साइंटिफ़िक रवैये को दर्शाती है।
तालीम के मैदान में इमाम अहमद रज़ा ख़ान की सबसे बड़ी पहचान उनकी किताब “फ़तावा-ए-रज़विया” है। तीस जिल्दों में फैला यह महान ग्रंथ सिर्फ़ फ़िक़्ह का ही नहीं बल्कि समाज, तालीम और साइंस से जुड़े सैकड़ों सवालों का जवाब देता है। इसमें जगह-जगह वे तालीम की अहमियत बताते हैं। उनका क़ुरआन का तर्जुमा “कंज़ुल-ईमान” भी इसी सोच का नतीजा है। उन्होंने मुश्किल अरबी-फ़ारसी अल्फ़ाज़ से बचकर आसान और प्यारी उर्दू में क़ुरआन का मतलब बयान किया ताकि आम लोग भी इसे समझ सकें। यह उनके उस तालीमी मिशन का हिस्सा था जिसमें वे चाहते थे कि इल्म सिर्फ़ किताबों या खास तबके तक सीमित न रहे बल्कि हर इंसान तक पहुँचे।
उन्होंने हमेशा तालीम को मज़हबी और दुनियावी दोनों हिस्सों में ज़रूरी बताया। वे चाहते थे कि नौजवान सिर्फ़ मदरसे की दीवारों तक सीमित न रहें बल्कि साइंस, गणित और दुनिया की नई नई खोजों से भी वाक़िफ़ हों। लड़कियों की तालीम के भी वे हामी रहे। उनके नज़दीक एक पढ़ी-लिखी और समझदार माँ ही आने वाली नस्लों को बेहतरीन तालीम दे सकती है। यह सोच उस ज़माने में बहुत आगे की बात थी।
उनकी सोच का असल निचोड़ यह था कि साइंस और मज़हब एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बल्कि एक-दूसरे के मददगार हैं। उनका मानना था कि जो इल्म इंसानियत के लिए फ़ायदा पहुँचाए, वह अल्लाह की नेमत है और उसका इस्तिमाल करना भी इबादत का हिस्सा है। इसी सोच की वजह से उन्होंने न सिर्फ़ किताबें लिखीं बल्कि लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि तरक़्क़ी की असली राह तालीम और रिसर्च से होकर गुजरती है।
नतीजे के तौर पर कहा जा सकता है कि इमाम अहमद रज़ा ख़ान की शख़्सियत सिर्फ़ एक मज़हबी रहनुमा या शायर की नहीं थी, बल्कि वे एक एजुकेशनिस्ट और साइंटिफ़िक थिंकर भी थे। उनकी किताबें और उनके अफ़कार आज भी इस बात का सबूत हैं कि जब मज़हब और साइंस मिलकर इंसान की रहनुमाई करें, तो समाज में इल्म और मोहब्बत दोनों की रोशनी फैलाई जा सकती है।