(रईस खान)
सूफ़िया-ए-चिश्तिया-साबिरिया सिलसिले का एक बड़ा मरकज़, खानकाह-ए-रहमानी, आज भी दीनी और समाजी रहनुमाई का अहम पता है। इसकी बुनियाद 18वीं सदी में हज़रत शाह अबुल हसन ज़ैदी मुंगेरी रहमतुल्लाह अलैह ने रखी थी। उस वक़्त से लेकर आज तक यहां से तसव्वुफ़, इल्म और इंसानियत की ख़ुशबू फैलती रही है।
खानकाह की असल पहचान मौलाना मिनातुल्लाह रहमानी रहमतुल्लाह अलैह और फिर उनके बेटे मौलाना वली रहमानी रहमतुल्लाह अलैह से और मज़बूत हुई। मिनातुल्लाह रहमानी, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पहले जनरल सेक्रेटरी रहे और मुस्लिम समाज की शरई व क़ानूनी रहनुमाई में उनका बड़ा किरदार रहा। वहीं मौलाना वली रहमानी ने न सिर्फ़ खानकाह की सज्जादानशीनी संभाली बल्कि “रहमानी-30” जैसी तालीमी तहरीक़ की नींव रखी, जिसने ग़रीब और काबिल नौजवानों को आईआईटी और मेडिकल जैसे इम्तिहानों तक पहुंचाने का रास्ता खोल दिया।
इस खानकाह की अहमियत सिर्फ़ दीनी या तालीमी कामों तक सीमित नहीं रही। बिहार और पूरे हिंदुस्तान की सियासत में भी इसका असर महसूस किया जाता है। यहां के सज्जादानशीन की राय को मुस्लिम अवाम का झुकाव समझा जाता है। यही वजह है कि बड़े-बड़े सियासी लीडर यहां आते हैं। अतीत में राजीव गांधी ने खानकाह-ए-रहमानी का दौरा किया था और अब राहुल गांधी भी यहां पहुंचकर सज्जादानशीन से मुलाक़ात कर चुके हैं।
सियासी जानकारों का कहना है कि मुस्लिम वोटरों के बीच भरोसा कायम करने और उनकी नब्ज़ समझने के लिए ऐसे मराकिज़ हमेशा अहम रहे हैं। हालांकि खानकाह सीधे तौर पर किसी पार्टी की हिमायत नहीं करती, लेकिन इसकी नैतिक और रूहानी हैसियत का असर अवाम की राय पर पड़ता है।
आज खानकाह-ए-रहमानी मुंगेर, एक ऐसी दरगाह मानी जाती है जहां से तसव्वुफ़ की रूहानी रोशनी भी मिलती है और दीनी-सियासी रहनुमाई भी। यह जगह सिर्फ़ बिहार ही नहीं बल्कि पूरे मुल्क के मुसलमानों के लिए इत्तिहाद और रहबरी की अलामत बनी हुई है।