(रईस खान)
लखनऊ के मलिहाबाद में दशहरी आम की खुशबू और बागों की छांव से पहचाना जाने वाला मलिहाबाद सिर्फ आम का गढ़ ही नहीं, बल्कि दुनिया के लिए एक जीवित धरोहर है। यहां के पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त बागवान हाजी कलीमुल्लाह खान ने बागवानी को नई दिशा दी है। उनकी बनाई अब्दुल्लाह नर्सरी में खड़ा वह ऐतिहासिक पेड़ आज भी दुनिया का ध्यान खींचता है।
अब्दुल्लाह नर्सरी का सबसे बड़ा आकर्षण है वह 125 वर्ष पुराना पेड़, जिस पर 300 किस्मों के आम फलते हैं। यह एक पेड़ नहीं, बल्कि बागवानी विज्ञान और धैर्य का प्रतीक है।
“यह पेड़ सिर्फ आम नहीं देता, बल्कि हमारी मेहनत, धरोहर और नवाचार की पहचान है।” — हाजी कलीमुल्लाह खान
साधारण किसान परिवार से निकलकर कलीमुल्लाह साहब ने आम की ग्राफ्टिंग को अपना जीवन बना लिया। दशहरी और लंगड़ा जैसी पारंपरिक किस्मों को बचाने के साथ उन्होंने हुस्नआरा, नूरजहाँ और कई नई किस्में विकसित कीं। 2008 में उन्हें पद्मश्री सम्मान मिला और तब से वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “मैंगो मैन ऑफ इंडिया” कहलाने लगे।
अब नर्सरी की जिम्मेदारी उनके बेटे नजीमुल्लाह खान संभाल रहे हैं। वे हर आगंतुक को आम की तमाम किस्मों से परिचित कराते हैं और बताते हैं कि किस्मों की यह दुनिया कितनी समृद्ध है।
“अब्बा ने जो विरासत दी है, उसे आगे बढ़ाना मेरी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।” — नजीमुल्लाह खान
लोग मानते हैं कि हाजी साहब ने केवल पौधे ही तैयार नहीं किए, बल्कि अपने बेटे को भी नई पौध की तरह तैयार किया है, जो अब इस जिम्मेदारी को कंधों पर लेकर चलने को तैयार है।
आज अब्दुल्लाह नर्सरी सिर्फ पौध खरीदने की जगह नहीं रही, बल्कि एक जीवित अकादमी है। यहां दशहरी, लंगड़ा, हुस्नआरा, तैमूरिया और जौहरी जैसी दर्जनों किस्में मिलती हैं। किसान यहां आकर न सिर्फ पौध खरीदते हैं, बल्कि नई तकनीक और बागवानी के गुर भी सीखते हैं।
जब कोई उस ऐतिहासिक पेड़ के नीचे खड़ा होता है और सैकड़ों किस्मों के आम देखता है, तो समझ आता है कि यह केवल खेती नहीं, बल्कि धैर्य, नवाचार और परंपरा की जीवित कहानी है। अब जिम्मेदारी नजीबुल्लाह के कंधों पर है और यह विश्वास भी कि मलिहाबाद की यह विरासत आने वाली पीढ़ियों तक और भी मजबूती से पहुंचेगी।