इस्लामी दुनिया में इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ बरेलवी (1856–1921) वह शख़्सियत हैं, जिनकी ज़िंदगी और तहरीरें एक ही पैग़ाम देती हैं—मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ ईमान की रूह है।
इमाम अहमद रज़ा की सारी ज़िंदगी हज़रत मुहम्मद ﷺ की ताज़ीम और मोहब्बत में गुज़री। उन्होंने इबादत, इल्म और तसव्वुफ़ सबको इसी इश्क़-ए-रसूल ﷺ की रोशनी में देखा। उनके कलाम से यह साफ़ झलकता है कि मोहब्बत-ए-नबी ﷺ सिर्फ़ जज़्बा नहीं, बल्कि अक़ीदा और अमल का बुनियादी हिस्सा है।
इमाम अहमद रज़ा ने एक हज़ार से ज़्यादा किताबें लिखीं। उनका सबसे बड़ा फ़िक़्ही शाहकार फ़तावा-ए-रज़विया तीस से ज़्यादा जिल्दों में फैला हुआ है। इसके अलावा उनकी नातिया शायरी ने मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ का एक नया अंदाज़ पेश किया। उनकी नातें आज भी मस्जिदों, मजलिसों और दर्सगाहों में गूंजती हैं।
उनके दौर में कुछ लोग मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ को ग़ुलू और गुमराही का नाम देकर इल्ज़ाम लगाते थे। इमाम अहमद रज़ा ने अपने मज़बूत इल्मी दलीलों से इन इल्ज़ामों का जवाब दिया। उन्होंने साबित किया कि मोहब्बत और ताज़ीम-ए-नबी ﷺ ईमान की जान है और इसे ग़लत कहना दरअसल गुमराही है।
इमाम अहमद रज़ा का हर कलाम और हर फ़ैसला मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ का तर्जुमान था। उनकी पहचान ही “आशिक़-ए-रसूल” की बनी। उनकी यह उक्ति आज भी याद की जाती है:
“अगर मोहब्बत-ए-रसूल ﷺ गुनाह है, तो मैं यही गुनाह बार-बार करूँगा।”
नातिया कलाम से झलकती मोहब्बत
“मुस्तफ़ा जाने रहमत पे लाखों सलाम,
शमा-ए-बज़्म-ए-हिदायत पे लाखों सलाम।”
“वो सुहानी घड़ी चाँदनी छा गई,
ख़ुश्बू-ए-गुल से फ़िज़ा महका गई।”