(रईस खान)
मुंबई में हाल ही में भाजपा विधायक अतुल साटम का बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने चेतावनी दी कि “कल हर वार्ड में एक हारून ख़ान चुना जा सकता है और कोई ख़ान मुंबई का मेयर बन सकता है।” यह टिप्पणी केवल स्थानीय राजनीति तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसे लंदन और अन्य पश्चिमी देशों में हो रहे आव्रजन-विरोधी प्रदर्शनों से जोड़कर देखा जा रहा है। लंदन के मेयर सादिक़ ख़ान पर तंज़ कसते हुए साटम का इशारा साफ था,मुसलमानों के बढ़ते सियासी दायरे से एक ख़ौफ़ पैदा करना और समाज में अविश्वास बोना।
लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह की गंदी सियासत भारत जैसे लोकतांत्रिक मुल्क के लिए सही है? क्या यह सच नहीं कि मुस्लिम समाज की सियासी मौजूदगी न सिर्फ़ हक़ीक़त है बल्कि लोकतंत्र की ताक़त भी है?
दुनिया में मुस्लिम सियासत का उभार
लंदन का उदाहरण किसी से छुपा नहीं। मज़दूर बेटे सादिक़ ख़ान आज ब्रिटेन की राजधानी के मेयर हैं। अमेरिका की कांग्रेस में इल्हान उमर और राशिदा तलीब जैसी मुस्लिम महिलाएँ क़ानून बनाने की प्रक्रिया में सक्रिय हैं। यूरोप और एशिया के कई देशों में मुसलमान निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। यह सिलसिला बताता है कि मुसलमानों को डर और शक की नज़र से देखने की जगह, उन्हें लोकतंत्र की मज़बूती के रूप में देखना चाहिए।
भारत की हक़ीक़त
भारत में तक़रीबन 20 करोड़ मुसलमान रहते हैं। यह आबादी 20 से ज़्यादा लोकसभा सीटों और सैकड़ों विधानसभा सीटों में निर्णायक है। आज़ादी की जंग से लेकर आज तक मुस्लिम समाज का योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉ. ज़ाकिर हुसैन और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम,यह सबूत हैं कि मुसलमान इस मुल्क की तरक़्क़ी और जम्हूरियत के लिए हमेशा अहम रहे हैं।
सांप्रदायिक सियासत का मक़सद
फिर भी, हर चुनाव से पहले एक ही खेल दोहराया जाता है, कभी “बांग्लादेशी घुसपैठ” का डर, कभी “लव जिहाद” की अफ़वाह, और अब “ख़ान मेयर” की चेतावनी। यह दरअसल डर और नफ़रत के सहारे वोट बैंक पॉलिटिक्स है। इसमें न तो हिंदू भाइयों का फ़ायदा है और न मुसलमानों का। असल नुक़सान सिर्फ़ लोकतंत्र और भाईचारे का होता है।
गंगा-जमुनी तहज़ीब भारत की ताक़त है
भारत की पहचान हमेशा से गंगा-जमुनी तहज़ीब रही है। हिंदू और मुसलमान मिलकर इस मुल्क की रूह को ज़िंदा रखते हैं। जब-जब किसी ने इस तहज़ीब को तोड़ने की कोशिश की, देश कमज़ोर हुआ। आज ज़रूरत है कि देश ऐसी गंदी सियासत से सावधान रहे। मुस्लिम समाज की सियासी मौजूदगी किसी मज़हब का मुद्दा नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र की ज़मानत है। अगर भाईचारा मज़बूत होगा तो मुल्क मज़बूत होगा।
जैसा कि इक़बाल ने कहा था,
“मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तान हमारा।