मुंबई की उर्दू सहाफ़त और मुसलमानों के हालात

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           (रईस खान)
मुंबई हमेशा से मुल्क की तिजारत और तहज़ीब का बड़ा मरकज़ रही है। यहाँ के उर्दू अख़बार और सहाफ़ी बरसों से क़ौमी आवाज़ उठाते आए हैं। आज भी “इंक़लाब”, “उर्दू टाइम्स”, “उर्दू न्यूज़”, “राष्ट्रीय सहारा उर्दू” “हिंदुस्तान”, “सहाफत” जैसे अख़बार लाखों लोगों तक पहुँचते हैं। लेकिन इन अख़बारों और इनके सहाफ़ियों की ज़िंदगी आसान नहीं रही। एक वक़्त था जब उर्दू प्रेस का असर सियासत से लेकर समाज तक महसूस किया जाता था, मगर अब हालात बदल गए हैं। अख़बारों की आमदनी घटी है, स्टाफ़ कम हो गया है और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म की चुनौती बढ़ गई है। इसके बावजूद सहाफ़ी क़लम से समझौता नहीं कर रहे।

मुस्लिम समाज की बात करें तो तस्वीर और भी मुश्किल है। तालीम के मामले में महाराष्ट्र के मुसलमानों की साक्षरता दर 83.6% है, जो मुल्क के औसत से बेहतर है, लेकिन उच्च शिक्षा तक पहुँच अब भी बहुत कम है। मुंबई और उसके इर्द-गिर्द के मुस्लिम इलाक़ों में स्कूलों और कॉलेजों की कमी साफ़ दिखती है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया जैसी यूनिवर्सिटियों के मुक़ाबले मुंबई में कोई मज़बूत तालीमी इदारा नहीं बन सका। जो बने भी, उन्हें भाई-भतीजावाद, कुप्रबंधन और वक़्फ़ की ज़मीनों पर अतिक्रमण ने पंगु बना दिया।

वक़्फ़ की बात करें तो महाराष्ट्र में कुल 92,247 एकड़ ज़मीन वक़्फ़ की है, मगर उसमें से आधी से ज़्यादा ज़मीन कब्ज़ों में चली गई है। मराठवाड़ा जैसे इलाक़ों में तो 60% से ज़्यादा वक़्फ़ ज़मीन अतिक्रमण का शिकार है। 1,088 मामलों में अतिक्रमण दर्ज हैं, लेकिन अब तक सिर्फ़ 21 मामलों में ही कार्रवाई हो सकी है। इस बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और बेईमानी ने मुस्लिम समाज के तालीमी और सामाजिक विकास को रोक दिया है। यही वजह है कि मज़हबी और क़ौमी इदारों की तरक़्क़ी की राह में मुश्किलें खड़ी होती हैं।

मुंबई के सहाफ़ियों का मानना है कि मुस्लिम लीडरशिप ने भी अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई।भाई-भतीजावाद और निजी फायदे ने क़ौमी इदारों को नुक़सान पहुँचाया। हालात यह हैं कि मुस्लिम बहुल इलाक़ों में गंदगी, बेरोज़गारी और बदइंतज़ामी आम है। तालीम और कारोबार में नाकामी का असर नई पीढ़ी की सोच और उनके भविष्य पर सीधा पड़ रहा है।

इस हालात पर बातचीत के दौरान इंक़लाब के सआदत ख़ान, उर्दू टाइम्स के फ़ारूक़ अंसारी, उर्दू न्यूज़ के शकील रशीद, सईद हमीद , निहाल सगीर और कई नामवर सहाफ़ियों ने कहा कि उर्दू प्रेस अब भी उम्मीद की शमा है। अगर यह आवाज़ बंद हो गई तो समाज की जुबान खामोश हो जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि उर्दू अख़बार, डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया को मज़बूत किया जाए और इन्हें सहारा देने के लिए पढ़े-लिखे नौजवान आगे आएँ।

मुंबई की उर्दू सहाफ़त और मुस्लिम समाज की तरक़्क़ी का रिश्ता गहरा है। अगर तालीम, कारोबार और वक़्फ़ की बेहतरीन देखभाल होगी, तो सहाफ़त भी मज़बूत होगी और समाज भी तरक़्क़ी करेगा। वरना यह हक़ीक़त बदलने वाली नहीं कि अख़बार कमज़ोर होंगे और समाज और पिछड़ता चला जाएगा।

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