पत्रकार साथी मुकेश चंद्राकर को आखिरी सलाम

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पत्रकार साथी मुकेश चंद्राकर को आखिरी सलाम!

दोस्त तुमसे कोई परिचय नहीं था पर तुम हमारे ही साथी थे!

देर रात एक दोस्त से देर तक जिंदगी में प्रेम, परिवार, पॉलिटिक्स के उतार चढ़ाव पर देर रात चर्चा के बाद सुबह-सुबह शिवदास भाई, सुभाष चंद्र कुशवाहा जी और साथियों की पोस्ट ने दिल को भारी कर दिया!

आजमगढ़ में विमलकांत जी द्वारा माता सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख जी की याद में आयोजित कार्यक्रम में जाना था पर हिम्मत नहीं हुई!

एक एक्टिविस्ट के साथ पत्रकार भी हूं शायद इसलिए भी! नहीं मालूम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तुम नुमाइंदे माने जाओगे कि नहीं!

खबर कह रही कि कुल्हाड़ी से तुम्हारी हत्या की गई! मैं तो एक छोटे से आपरेशन से भी डरता हूं, खून देखकर बेहोश हो जाता हूं, कैसे तुमने कितनी यातना सही होगी ये सोच सोचकर चक्कर आ जा रहा है!

कितना दर्द तुमको हुआ होगा इस बात अंदाजा लगाना मुश्किल पर सुदूर क्षेत्रों में शोषण, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वालों को किस चौराहे पर कौन रोक दे, कब गाड़ी में उठा ले जाएं, कब कनपटी पर लगे असलहे से गोली चल जाए क्या पता!

और अगर बच गए तो कहा जाएगा कि आप तो पत्रकार हो कहानी बना लेते हो और मारे गए तो कहा जाएगा डील नहीं बैठ पाई!

कमल शुक्ला, हिमांशु कुमार जी के फेसबुक और छत्तीसगढ़, बस्तर की खबरों के जरिए जितना परिचित हूं आज वहां से लूटकर वे भ्रष्टाचारी लुटेरे यूपी जैसे मैदानी इलाकों में लूट का राज स्थापित कर रहे हैं!

हर दिन विस्तार हो रहे हाईवे, एनएच इतने घटिया मैटेरियल से बन रहे जिसको हर कोई देख रहा और उन सड़कों पर महंगे टोल देने को मजबूर!

सवाल न उठे, सवाल उठाने वाला पहले ही डर जाए इसलिए ऐसे ज्यादातर ठेके सत्ता संरक्षित माफियाओं के या उनके गुर्गों के होते हैं!

हर रोज एक लीटर पेट्रोल की ऊर्जा से अपना पेट जलाकर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा न करने वाले एक्टिविस्ट जर्नलिस्ट की मौत भी खबर नहीं बन पाती क्योंकि वो जिन भ्रष्ट ठेकेदारों, पूंजीपतियों, नेताओं, अधिकारियों के खिलाफ बोलता है उन्हीं के पैसों से मीडिया हाउस खड़े हैं!

तुम्हारी हत्या एक्सीडेंटल नहीं बल्कि सुनियोजित तरीके से की गई! एक धमकी है कि सच बोलने की यह सजा होती है!

इतनी हिम्मत! हत्यारों को कौन संरक्षण दे रहा था कि उन्होंने हत्या कर शव को ठेकेदार के कंपाउंड में बने सेप्टिक टैंक में डालकर प्लास्टर कर दिया!

ऐसी हत्याओं के बाद कुछ पकड़े जाते हैं और जो मुख्य होता है उसकी हत्या करने में सीधी भूमिका न होने के चलते कुछ नहीं होता!

जो पकड़े जाते हैं कुछ वक्त जेल में रहते हैं! ऐसी घटना को अंजाम दिलवाने वाले को पता है कि जो करोड़ों का तुम नुकसान कर रहे थे कुछ लाख लगाकर तुमको ठिकाने लगाकर सदा के लिए तुम्हारे सहित उन आवाजों को दबा देगा जो उसके खिलाफ होगी!

और जहां तक विभाग के अधिकारियों का सवाल है तो निश्चित रूप से तुम्हारी हत्या के लिए वो भी दोषी हैं पर अगर वे इस लूटतंत्र का हिस्सा नहीं बनेंगे, सवाल करेंगे तो उनका भी हाल तुम्हारे जैसा ही होगा!

आखिर में देखा है कि अच्छे अच्छे लोग अंत में बीबी-बच्चे, परिवार नौकरी है कहकर इस भ्रष्टाचार के शेयर धारक बनने को मजबूर हो जाते हैं!

एक पत्रकार के साथ हुई यह घटना बताती है कि न जाने कितने मजदूरों को ऐसे मारा गया होगा जिनका अता पता भी नहीं चला होगा!

तुम्हारी तरह उनके लिए आवाज उठाने वाला भी कोई न रहा होगा!

इस मुश्किल दौर में भी तुमने अपनी जान देकर ऐलान कर दिया कि पत्रकारिता एक आंदोलन है और पत्रकार इस आंदोलन का कार्यकर्ता!

ऐसे कुछ मुश्किल दौर में शंकर गुहा नियोगी जी याद आते हैं जिन्हें माफियाओं ने गोली का निशाना बनाया! शहीद नियोगी जी ने संघर्ष और निर्माण का जो रास्ता दिया वो आने वाली नस्लों को जिस तरह से प्रेरित करता है वैसे तुम भी…

शहीद कहना आसान होता है, शहीद होना कठिन!

तुम्हारी मां-बहन, परिजन जिस पीड़ा से गुजर रहे होंगे उसको सोचकर मुझे मेरी मां याद आ जाती है, जो ऐसी घटनाओं से डरी सहमी रहती है!

मेरी मां जब सूरज ढलता भी नहीं तभी से कहने लगती है जहां हो वहीं रह जाना!

मेरा तुमसे कोई परिचय नहीं पर एक कयास है कि यह पहली बार तुम पर हमला नहीं हुआ होगा!

हर ऐसे हमले व्यक्ति कमजोर करने के लिए होते हैं! और शासन-प्रशासन भी आपके खिलाफ, वो आपके ही घर पुलिस और जांच एजेंसियों को भेजकर आपको संदिग्ध बना देता है!

सोशल मीडिया के दौर में वायरल तो हो जाता है पर जो मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचाया जाता है, उत्पीड़न किया जाता है वो आपको कमजोर करने के लिए होता है!

पर तुम बहादुर थे! अंत तक लड़ते रहे!

इस बात को लेकर कोई अफसोस नहीं करना की आम जनता ये सवाल नहीं करती, तुम्हारे लिए नहीं लड़ी! अगर उसमें इतनी ताकत इतनी हिम्मत रहती तो तुम अकेले नहीं वे सब आवाज उठाते!

पर वे तुम पर निर्भर हैं!

पिछले दिनों एक साथी असद हयात साहब जो साम्प्रदायिकता और नफरत के खिलाफ लड़ते रहे से मिलकर आया तो यही समझ आया कि जिन लड़ाइयों को हम लड़ते हैं उनकी जिम्मेदारी हमें बिन मांगे समाज ने दे दी है पर आपकी जिम्मेदारी नहीं ली!

गुस्से के साथ हंसी आती है…

ऐसे कई मौकों पर लगता है कि जिनके लिए सवाल उठाया उन्होंने आपके लिए सवाल तो दूर आपके साथ खड़े भी नहीं हुए, इसमें उनकी कायरता से ज्यादा निरिहिता है!

माफी के साथ तुमको तुम-तुम कहकर संबोधित किया पर आप में वो छोटे भाई सा अपनापन नहीं आ रहा था…

सलाम साथी…

राजीव यादव

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