(सत्यम प्रजापति)
भारत का संविधान, जो धर्मनिरपेक्षता, समानता और स्वतंत्रता की नींव पर टिका है, वह “हिंदू राष्ट्र” की मांगों के चलते गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है। हाल ही में धर्मगत राष्ट्र क़े लिए कानून बनकर पूरा होने की बात शंकराचार्य और अन्य मठाधीशों ने कही। यह न केवल संविधान की मूल भावना के विपरीत हैं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने की कोशिश भी हैं।
संविधान का अनुच्छेद 25 हर नागरिक को अपने धर्म का पालन, प्रचार और उसकी स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यह देश को एक ऐसा राष्ट्र बनाता है जो न तो किसी एक धर्म को बढ़ावा देता है और न ही किसी धर्म को प्रतिबंधित करता है, लेकिन “हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा संविधान की इस धर्मनिरपेक्ष आत्मा को खत्म करने की कोशिश है। अगर यह विचार लागू किया जाता है, तो यह अनुच्छेद 25, अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), और अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध) का खुला उल्लंघन होगा।
वर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देना और सरकारी संस्थानों पर कब्जा का संकट
“कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था” को कानूनी रूप देने की बात संविधान के अनुच्छेद 17 (छुआछूत का उन्मूलन) और अनुच्छेद 23 (शोषण के खिलाफ अधिकार) के खिलाफ है। भारतीय संविधान ने ऐसे किसी भी सामाजिक ढांचे को खत्म करने का प्रण लिया है, जो समानता और गरिमा के अधिकार का हनन करता है। वर्ण व्यवस्था को कानूनी रूप देना न केवल सामाजिक अन्याय को फिर से स्थापित करेगा, बल्कि यह दलित और पिछड़े वर्गों के अधिकारों को भी कुचल देगा।
भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका, प्रेस और चुनाव आयोग जैसे संस्थान लोकतंत्र के स्तंभ हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन संस्थाओं की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं। सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक पीठों के लंबित मामलों पर निर्णय नहीं आना, चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर उठते सवाल और मीडिया में सरकार के पक्ष में झुकाव और असहमति के स्वर को दबाने की प्रवृत्ति यह संकेत करती है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं पर एक संगठित प्रयास से कब्जा किया जा रहा है।
जनता को भांपने की साजिश
“हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा सिर्फ एक धर्म आधारित शासन प्रणाली की मांग नहीं है। यह एक सोची-समझी रणनीति है, जिससे देश के मूड को परखा जा रहा है। ये ताकतें यह जानने की कोशिश कर रही हैं कि जनता का रुख क्या है।अगर जनता ने विरोध नहीं किया तो ये शक्तियां अपने मंसूबों को और तेजी से आगे बढ़ा सकती हैं। यह भी संभव है कि अगर संगठित विरोध न हुआ तो अगला लोकसभा चुनाव भी खतरे में पड़ जाए। इस साजिश का दूसरा पहलू यह है कि धीरे-धीरे लोकतंत्र को खत्म कर एक तानाशाही व्यवस्था स्थापित की जा रही है, जहां नागरिकों के अधिकारों को दबाकर एक खास विचारधारा थोपी जाएगी।
लोकतान्त्रिक संकट और जानता की ख़ामोशी
“हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा केवल धर्म आधारित शासन प्रणाली की मांग नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के अस्तित्व को खत्म करने की योजना का हिस्सा है। अगर यह विचार लागू होता है, तो लोकसभा चुनाव जैसे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को खतरे में डाला जा सकता है। “संविधान बदलने” की कोशिशें आम जनता की सहमति के बिना लोकतंत्र को तानाशाही की ओर धकेल सकती हैं। सही मायने में यह बहस केवल धर्म या संस्कृति का मुद्दा नहीं है, यह हमारे देश की लोकतांत्रिक नींव और संविधान पर हमला है। अगर आज हम खामोश रहे तो भविष्य में लोकतंत्र केवल एक इतिहास की बात बनकर रह जाएगा। देश के हर नागरिक को यह समझने की जरूरत है कि संविधान की रक्षा करना केवल सरकार का काम नहीं है। यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है। यह याद रखना चाहिए कि भारत किसी एक धर्म का नहीं, बल्कि हर धर्म, हर समुदाय और हर नागरिक का है। यही इसकी ताकत है।
–सत्यम प्रजापति
लेखक, सामयिक विमर्शकार।