महाकुंभ और मुसलमान: इलाहाबादियत और इंसानियत का परचम

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इलाहाबाद:(सुशील मानव) भारत रत्न शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ां का एक बहुत ही मशहूर क़िस्सा है, जिसे उन्होंने ख़ुद अपनी ज़बानी सुनाया था. वो एक कार्यक्रम के सिलसिले में अमेरिका गए हुए थे, जहां उनसे एक अमेरिकी अधिकारी ने कहा कि ख़ां साहेब आप यहां रह जाइए. यहां के लोगों को शहनाई सिखाइए. इस पर ख़ां साहेब बोले सिखाने के लिए तो साल-दो साल रहना पड़ेगा. लेकिन हम अकेले तो नहीं हैं. तब उस अमेरिकी ने कहा कि कोई बात नहीं, कार लीजिए, मोटर लीजिए, डॉलर लीजिए. 40-50 जितने आदमी हों आपके, सबको ले आइए. इस पर बिस्मिल्ला साहेब ने कहा हमारे लोगों को आप ला देंगे, लेकिन आप यहां हमारी गंगा कैसे ले आइएगा.

इसी तरह का एक क़िस्सा पटना की गंगा मस्ज़िद का है कि वहां मुअज़्ज़िन लोग गंगा के पानी से वुज़ू करके अज़ान पढ़ते थे. लब्बो-लुआब यह है कि गंगा किसी जाति और मज़हब की नहीं हैं. गंगा उनकी हैं जिन्होंने गंगा को ख़ुद में रचा बसा लिया.

लेकिन यह बात मुल्क़ और सूबे के निज़ामों की समझ में नहीं आती, तभी तो उन्होंने महाकुंभ को सांप्रदायिक विभाजन की बुनियाद पर खड़ा करने की कोशिश की है. उनकी इस कोशिश में बाबाओं और शंकरचार्यों का सहयोग भी मिला है. उत्तर पीठ (ज्योतिष) के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने मेला शुरू होने से पहले बयान दिया कि ‘मुसलमानों के सबसे बड़े तीर्थ मक्क़ा शरीफ़ में हिंदुओं को 40 किमी पहले ही रोक देते हैं. क्यों रोकते हैं, वो इसीलिए न कि हमारा मुसलमानों का तीरथ है तुम्हारा क्या काम है. तो ठीक है हम भी यह कह रहे हैं कि ये हमारा कुंभ है तुम्हारा क्या काम है. ग़लत क्या है.’

उन्होंने आगे कहा था कि मुसलमान ‘धर्म को भ्रष्ट करना चाहते हैं. हमको अपवित्र बनाना चाहते हैं, इसलिए ‘इनको पास मत आने दो.’

कहते हैं कि जब कोई गंगा स्नान करके घर आता है तो उसके पैरों में लगकर गंगा की माटी भी चली आती है, उन लोगों के लिए जो गंगा तक नहीं जा पाए. जब महाकुंभ में भगदड़ की रात तमाम श्रद्धालु मेला क्षेत्र से निकलकर शहर में फंस गए तो मौलानाओं ने मस्जिदों के दरवाज़े उनके लिए खोल दिए, और इस तरह जिन मुसलमानों को कुंभ में हिस्सा लेने से रोका गया, कुंभ ख़ुद ही उनके घरों, उनकी मस्ज़िदों में चला आया.

शहर के मुमताज़ महल इलाके के रहने वाले मुज़फ़्फ़र बाग़ी साहेब बताते हैं, ‘पुलिस वालों ने बैरिकेडिंग लगाकर हमारी गलियों को पैक कर दिया था. हमें बाहर निकलने नहीं दे रहे थे. यहां वहां पुलिस बैठी हुई थी. लेकिन 29 जनवरी को जब माहौल खराब हुआ और तो सारे पुलिसवाले भाग गए. लोगों ने बैरिकेडिंग तोड़ दिया. और हमने अपने घरों के दरवाज़े खोलकर उनका एहतेराम किया.’

मुज़फ़्फ़र बाग़ी साहेब आगे बताते हैं, ’29 जनवरी की रात बहुत मज़बूर और लाचार लोग इतना थक गए थे कि पैर पकड़कर बैठ जा रहे थे. जो जनाना थीं वो और भी तक़लीफ़ों से गुज़र रही थीं. हमने अपने घरों के दरवाज़े खोल दिए. स्त्रियां बच्चे आदमी सब अंदर आये. उन्होंने हमें इतनी दुआएं दी. उन लोगों की नज़र में उस वक़्त कोई हिंदू-मुस्लिम नहीं था. हमने उनको अपने कंबल, चादर, बिछौने दिए. खाने-पीने ठहरने का इंतज़ाम किया. मंसूर पार्क, जामा मस्ज़िद, कचेहरी बाज़ार,रोशन बाग़, वसीउल्लाह साहेब की मस्ज़िद में गलियों में जितने घर थे सबने दरवाज़े खोल दिए.’

इलाहाबाद का जो रौशन बाग़ इलाका, सीएए-एनारसी के खिलाफ़ संघर्ष के गवाह बन चुका था, वह उस रात गंगा-जमुनी तहज़ीब को सींचने के लिए रोशन हुआ. इलाहाबाद की बड़ी मस्जिद वसीउल्लाह मस्जिद के इमाम साहेब की अगुवाई में महाकुंभ के श्रद्धालुओं को रौशन बाग़ पार्क में पानी और खाने का इंतज़ाम किया गया.

स्थानीय निवासी मोहम्मद तासू उन लोगों में से एक हैं, जिन्होंने 29 और 30 जनवरी की रात शहर के चौक इलाके में यादगारे हुसैनी इंटर कॉलेज में 4-5 हज़ार श्रद्धालुओं को इंतज़ाम के लिए किया. तासू बताते हैं कि 31 तारीख़ को भी हज़ार के क़रीब श्रद्धालु लोग स्कूल में आकर रुके.

गौहर आज़मी यादगारे हुसैनी इंटर कॉलेज के प्रबंधक हैं. गौहर बताते हैं, ’30 जनवरी की रात भी हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु आए स्कूल में. उनके रहने के लिए पूरा कॉलेज खुलवा दिया है. चाय-बिस्किट, खाना-बिछौना सब इंतज़ाम किया है. केवल हम ही ने नहीं बहुत से स्थानीय लोगों ने पूरे इलाहाबाद में ग्रामीण इलाक़ों में भी सड़क किनारे सबके खाने,पानी ठहरने का इंतज़ाम किया.’

ऐसे एक अन्य शख्स हैं, मोहम्मद अनस, जो इलाहाबाद के मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स अनवर मार्केट के मालिक हैं. उस रात अनस ने पूरा अनवर मार्केट खुलवा दिया. गद्दा-रजाई, चाय-नाश्ता खाना, गरम पानी का इंतज़ाम किया. फेसबुक के जरिये भी ख़बर फैला दी.

वे कहते हैं, ‘महाकुंभ में तमाम बाबाओं ने बयान दिया कि यहां मुसलमानों की दुकानें नहीं लगेंगी और इसका व्यापक असर हुआ. 99 फ़ीसदी मुसलमानों ने वहां दुकानें नहीं लगाईं, केवल डर के मारे.’

उनका कहना है कि मुसलमानों के खिलाफ़ इस प्रोपेगैंडा के बावजूद समूचे समुदाय ने पीड़ित लोगों की मदद की और उस वक्त किसी ने भी नहीं पूछा कि हम मुसलमान के हाथ का खाना और पानी क्यों लें. ‘ये सरकार के मुँह पर तमाचा है.’

यादगारे हुसैनी ,मजीदिया इस्लामिया, वसीउल्लाह मस्जिद के इमाम ने लंगर चला दिए. नूरुल्लाह रोड के मुस्लिम युवक जगह जगह चाय बिस्किट का फ्री स्टाल लगा दिए. ईसाई समाज ने नाजरेथ हॉस्पिटल के सामने खाने आराम करने की व्यवस्था कर दी. फादर विपिन डिसूजा की अगुवाई में श्रद्धालुओं के लिए विशाल भंडारा लगाया गया. म्योराबाद चर्च कंपाउंड के पास चार्ली प्रकाश एडवोकेट ने लंगर लगा दिया. हाई कोर्ट के अधिवक्ता वर्चस्व वाजपेई माकू और इलाहाबाद इंटर कालेज के प्रबंधक राजेश अग्रवाल सारी व्यवस्था के साथ एक पैर पर खड़े रहे.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कमल कृष्ण राय कहते हैं, ‘यही हैं इलाहाबाद के मायने. जब ज़रूरत पड़ती है. जब मुश्किल वक़्त आता है, मुसीबत की घड़ी होती है, तो फिर न हिंदू न मुसलमान. फिर इलाहाबादियत और इंसानियत का परचम लहराता है.’

साभार द वायर

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