30 वर्षीय, नज़ाक़त अहमद शाह कश्मीरी ‘टूर गाइड’ हैं. हर दिन की तरह, 22 अप्रैल को भी वे पहलगाम चौक पर अपने ग्राहक, सैलानियों का इंतज़ार कर रहे थे. 10 बजे के क़रीब, उन्हें 11 सैलानियों का एक ग्रुप नज़र आया, जिसमें 3 बच्चे भी थे. नज़ाक़त ने उनसे कहा, ‘मैं चलूँ? मैं आपको ए बी सी तीनों घुमाऊंगा’. ‘एबीसी मतलब?’ ‘अरु वैली, बैसारण वैली और चंदनवारी’, सैलानियों के उस समूह को नज़ाक़त का अंदाज़-ए-बयां पसंद आया, और उन्होंने उस दिन के लिए नज़ाक़त अहमद शाह की श्रम शक्ति को ख़रीद लिया.
बच्चे, दिलक़श पहाड़ों, घने-हरे जंगलों और झरने से घिरे मैदान की हरी मख़मली घास पर ख़ुशी से नाच रहे थे. उन बच्चों में उन्हें अपनी दोनों मासूम बच्चियां नज़र आ रही थीं. नज़ाक़त बहुत खुश थे. तब ही, 2 बजे होंगे कि नज़ाक़त के कानों में फायरिंग के पहले शॉट की आवाज़ गूंज गई. कश्मीर के नाजुक हालात से वाकिफ, नज़ाक़त को असलियत समझने में देर नहीं लगी. फायरिंग तेज़ हो गई. नज़ाक़त बच्चों की ओर लपके और सबसे छोटे 2 साल के बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और बाक़ी दोनों को पकड़कर ज़मीन पर लेट गए.
गोली की आवाज़ें जितनी नज़दीक आती जा रही थीं, नज़ाक़त की दिल की धड़कन उतनी ही तेज़ होती जा रही थी. प्रवेश द्वार, जहाँ से टिकट ख़रीद कर अंदर आए थे, बहुत दूर है, नज़ाक़त जानते थे. ‘कुछ भी हो जाए, इन बच्चों को तो मैं बचाऊंगा’, नज़ाक़त के दिल ने तय कर लिया था और ज़हन में यह फ़ैसला होते ही, उनका दिमाग आधुनिक कम्यूटर से भी तेज़ चलने लगा था. ज़मीन पर लेटे हुए, उन्होंने नज़रे दौड़ाई. पार्क के दूसरी ओर बहते झरने की तरफ़ लगी कटीले तारों के फेंसिंग में उन्हें एक छेद नज़र आ गया. उन्होंने पार्क के बाहर खड़े कार ड्राईवर को फ़ोन मिलाया और कहा कि गाड़ी को तुरंत झरने की तरफ़ ले आ.
तीनों बच्चों को जैसे-तैसे उठाया और बिजली की रफ़्तार से उस छेद से बाहर निकल गए. गाड़ी तक पहुँचने के लिए अभी भी उन्हें झरने के साथ-साथ लगभग 10 मिनट तक दौड़ना था, फायरिंग तेज़ हो गई थी. लाशें बिछ रही थीं. चीख़ पुकार मच रही थी. नज़ाक़त अपनी इस डेरिंग के अंजाम से नावाक़िफ़ नहीं थे. यह सब उनके दिन भर के श्रम समझौते का हिस्सा भी नहीं था, और उनके वे सब सबूत थे, जो वे ज़ालिम आतंकी मांग रहे थे. वे कलमा भी अच्छी तरह पढ़ सकते थे, और अपनी पतलून और अंडरवियर खोलकर मुसलमान होने के सबसे निर्णायक ठोस सबूत के दर्शन भी उन्हें करा सकते थे. लेकिन ये सब विचार, उस बड़े लक्ष्य के सामने दम तोड़ चुके थे: ‘कुछ भी हो जाए, बच्चों को तो मैं बचाऊंगा’. उन मासूम बच्चों में उन्हें अपनी दोनों मासूम बच्चियां जो नज़र आ रही थीं.
मज़दूर-मेहनतक़श फ़ितरतन दिलेर होता है. नज़ाक़त ने वह दूरी तेज़ धावक से भी जल्दी तय की और तीनों बच्चों को कार के अंदर बिठाकर ही साँस ली. उसके बाद वे फिर उसी जगह वापस आए जहाँ मौत बरस रही थी. झरने की तरफ़ तारों की फेंसिंग से बाहर खड़े नज़ाक़त ने उन 4 जोड़ों में से 7 को देख लिया, जिनके वे उस दिन मज़दूर तय हुए थे. लकी तो उनके साथ पहले ही निकल लिए थे. वहीं से इशारे से बुलाकर, नज़ाक़त ने उन्हें भी बाहर निकाला और कुल 3 बच्चों समेत 11 लोगों को सही सलामत उनके होटल पहुंचाकर ही लंबी इत्मिनान की साँस ली. उन्हें लेकिन तब ही पता चला कि उनके चचेरे भाई, आदिल अहमद शाह, जो घोड़े पर सैलानियों को तफ़रीह कराकर, अपनी रोज़ी रोटी कमाते थे, टूरिस्टों की जान बचाने के लिए आतंकियों से उनकी बंदूक छीनते हुए शहीद हो गए.
बहादुर सैय्यद नज़ाक़त अहमद शाह और सैय्यद आदिल अली शाह को, क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा का सलाम!!
तबाही में अवसर ढूंढने वालो, बात-बात पर हिंदू-मुस्लिम करने वालो, तुम पर लानत है!!