दिल को झकझोर देगी ये कविता -पढ़िए

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UG medical की NEET परीक्षा कुछ दिनों पूर्व संपन्न हुई. सरकारी कॉलेजों में कुल सीट 55648 (पचपन हजार छः सौ अडतालीस) है जिसके लिए 2270000 (बाइस लाख सत्तर हजार) प्रतियोगी. मतलब यह है कि कोई छात्र कितना हूँ भी होनहार क्यों न हो, सौ में सिर्फ दो तीन ही चुने जाएंगे. अकारण नहीं है कि मेडिकल कोचिंग का केंद्र कोटा साल में बीसियों आत्महत्याएं देख रहा है.

मैने इस दंश को महसूस किया है. मेरी भी दो डाक्टर बेटियों में एक साल भर कोटा रही थी, और वहां तमाम भारत से जुटे लड़के लड़कियों की त्रस्तता को मैने अपनी आंखों देखा था. मेडिकल UG और PG दोनों परीक्षाओं में की असफलता और इसकी वेदना का भी मैं साक्षी रहा हूंँ.

जिस देश में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं की ऐसी तौहीन हो कि होनहार बच्चे अपने लिए कोई राह और मंजिल नहीं देख पावें और आत्महत्या पर उतर आवें, उस देश की तरक्की क्या खाक होगी?

पूंजीवादी शिक्षा व्यवस्था, कोचिंग माफिया, और छात्र जीवन की त्रासदी और सच्चाई को उजागर करती Mk Azad की यह कविता

कोटा : एक सुसाइड सिटी

 

(छात्रों के ख़ून से लथपथ मुनाफ़े की दीवार पर लिखा सच)

कोटा…

अब कोई शहर नहीं,

एक डरावना सपना है,

जहाँ हर दीवार पर

सिर्फ़ रैंकिंग, रिज़ल्ट और रेप्युटेशन चिपका है —

और हर छत से

एक और जीवन कूद जाता है नीचे।

यहाँ बच्चे नहीं आते,

बल्कि आते हैं छोटे-छोटे निवेश —

गरीब बाप की कमाई, माँ के गहने,

कर्ज़ में डूबे घर की उम्मीदें लेकर।

वे आते हैं — डॉक्टर, इंजीनियर बनने नहीं,

बल्कि सफलता की फैक्ट्री में

कच्चा माल बनने।

कोटा…

यहाँ हर कोचिंग सेंटर एक बाज़ार है,

जहाँ भाव नहीं, सिर्फ़ मुनाफ़ा तय करता है

कि कौन ‘स्टार’ है,

और कौन ‘वेस्ट’।

तीसरे महीने की परीक्षा —

तय करती है,

कि कौन इंसान है,

और कौन सिर्फ़ भीड़ का हिस्सा।

जो नंबर लाया —

उसकी तस्वीर होर्डिंग पर।

जो नहीं लाया —

उसका नाम हॉस्टल की दीवार से मिटा दो।

कोटा में दोस्त नहीं मिलते,

हर साथी प्रतियोगी है,

हर चेहरा एक ख़तरा —

कोई भी तुम्हारे सपनों को रौंद सकता है

एक अंक ज़्यादा लाकर।

यहाँ शिक्षक ‘गुरु’ नहीं,

‘ब्रांड एम्बेसडर’ हैं —

जो छात्रों के आँसू नहीं,

बस AIR की गिनती करते हैं।

यहाँ हर हॉस्टल

एक अकेलेपन की प्रयोगशाला है,

जहाँ हर रात

छात्र अपनी चुप्पियों से बातें करता है,

और सुबह —

या तो अगले टेस्ट की चिंता

या फंदे की तलाश।

छात्र मरते हैं यहाँ —

पर कोचिंग सेंटर बंद नहीं होते,

वे कहते हैं —

“वो कमज़ोर था।”

कभी नहीं कहते —

“हम वहशी हैं।”

एक कोटा नहीं —

पूरी व्यवस्था है कसाई।

जो कहती है —

“सीटें कम हैं, दौड़ बड़ी है।

तुम्हारा जीवन हमारी प्राथमिकता नहीं —

हमारा मुनाफ़ा है।”

हम पूछते हैं —

क्यों नहीं बढ़ाईं मेडिकल की सीटें?

क्यों नहीं खुले सरकारी कॉलेज?

क्यों एक पेपर में

एक बच्चा ‘फेल’

और पूरा परिवार ‘नष्ट’?

हम जानते हैं जवाब —

क्योंकि पूँजीवाद को

हर आत्महत्या में

एक नया विज्ञापन दिखता है।

हर गिरती लाश में

एक और बैच की रिक्ति दिखती है।

*कोटा*,

अब हमें चाहिए तुम्हारी कोचिंग नहीं —

हमें चाहिए एक और समाज।

जहाँ पढ़ाई हो हक़,

न कि सौदा।

जहाँ हर बच्चा जिए —

सिर्फ़ रैंकिंग में नहीं,

अपने सपनों में।

हमें चाहिए वह दुनिया —

जहाँ कोई छात्र

अपनी आखिरी चिट्ठी में

माँ से माफ़ी न माँगे।

आओ,

कोटा के आँसुओं से भीगती दीवारों पर

इंक़लाब की इबारत लिखें —

*“हमें समाजवाद चाहिए —

ताकि हमारे बच्चे जिएं।”*

– राना सिंह की प्रस्तुति

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