(रईस खान)
आयतुल्लाह ख़ामेनेई का जीवन एक धार्मिक विद्वान से लेकर विश्व की महाशक्तियों के खिलाफ अडिग नेता तक का सफर है। जेल की कोठरी से ईरान के सर्वोच्च नेता तक पहुंचने में उन्होंने कई कठिनाइयों का सामना किया। इसराइल और अमेरिका के खिलाफ उनकी लड़ाई उनके मजहबी विश्वास और इस्लामी क्रांति के सिद्धांतों से प्रेरित है। हालांकि, उनकी नीतियों ने ईरान को क्षेत्रीय प्रभाव तो दिया, लेकिन आर्थिक संकट और आंतरिक असंत की ओर भी ले गया। उनकी विरासत एक जटिल और विवादास्पद कहानी है, जो विश्व राजनीति में लंबे समय तक चर्चा का विषय रहेगी।
आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई, ईरान के सर्वोच्च नेता, एक ऐसी शख्सियत हैं जिनका जीवन संघर्ष, धार्मिक विश्वास, और इसराइल व अमेरिका के खिलाफ उनकी अडिग रुख से भरा हुआ है। उनका जीवन न केवल ईरान की इस्लामी क्रांति का प्रतीक है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे एक साधारण धार्मिक परिवार से निकला व्यक्ति विश्व की महाशक्तियों के सामने खड़ा हो सकता है।
आयतुल्लाह अली होसैनी ख़ामेनेई का जन्म 17 जुलाई 1939 को ईरान के पवित्र शहर मशहद में एक साधारण शिया धार्मिक परिवार में हुआ। उनके पिता, सय्यद जवाद ख़ामेनेई, एक शिया धर्मगुरु थे, और मां, खदीजा मिरदामादी, भी धार्मिक परिवार से थीं। आठ भाई-बहनों में से एक, ख़ामेनेई का बचपन सादगी और धार्मिक शिक्षा के माहौल में बीता।
ख़ामेनेई के पूर्वजों का भारत, खासकर उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के किंतूर गांव से गहरा नाता रहा है। उनके दादा, सय्यद अहमद मूसवी, 1790 में किंतूर में पैदा हुए थे और 1830 के दशक में अवध के नवाब के साथ धार्मिक यात्रा पर इराक और फिर ईरान गए। वहां वे ख़ामेनेई गांव में बस गए, जिसके नाम को बाद में उनकी पीढ़ियों ने सरनेम के रूप में अपनाया। छह साल की उम्र से ख़ामेनेई ने कुरान का अध्ययन शुरू किया। 11 साल की उम्र में वे मौलवी बन गए और मशहद, नजफ, और क़ोम जैसे शहरों में इस्लामी धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, और फिक़ह (इस्लामी कानून) की गहन शिक्षा ली। उनके शिक्षकों में आयतुल्लाह ख़ुमैनी जैसे प्रभावशाली नेता शामिल थे, जिन्होंने बाद में 1979 की इस्लामी क्रांति का नेतृत्व किया।
1960 और 1970 के दशक में ख़ामेनेई ने रजा शाह पहलवी के शासन के खिलाफ सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। शाह की पश्चिम समर्थित नीतियां और धर्मनिरपेक्ष सुधार, जैसे “व्हाइट रिवॉल्यूशन,” धार्मिक नेताओं और जनता के बीच असंतोष का कारण बने। ख़ामेनेई ने आयतुल्लाह ख़ुमैनी के नेतृत्व में शाह की नीतियों का विरोध किया, जिसके लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया, प्रताड़ित किया गया, और जेल में डाला गया।
ख़ामेनेई को 1963 में पहली बार गिरफ्तार किया गया, जब उन्होंने ख़ुमैनी के समर्थन में भाषण दिए। इसके बाद उन्हें कई बार जेल में डाला गया, और 1970 के दशक में उन्हें साइबेरिया के एक दूरस्थ इलाके में निर्वासित किया गया। इन कठिनाइयों ने उनके संकल्प को और मजबूत किया।
1979 में ख़ामेनेई ने ख़ुमैनी के साथ मिलकर इस्लामी क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस क्रांति ने शाह की राजशाही को उखाड़ फेंका और ईरान को इस्लामी गणराज्य बनाया। क्रांति के बाद ख़ामेनेई को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी गईं।
1981 में ख़ामेनेई ईरान के राष्ट्रपति बने, और 1989 में आयतुल्लाह ख़ुमैनी की मृत्यु के बाद उन्हें सर्वोच्च नेता चुना गया। हालांकि, उनके पास सर्वोच्च नेता बनने की धार्मिक योग्यता (मरजा-ए-तकलीद या ग्रैंड आयतुल्लाह) नहीं थी, इसलिए संविधान में संशोधन किया गया। शुरू में वे खुद को इस पद के लिए योग्य नहीं मानते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपनी स्थिति को मजबूत किया। 1997 में सुधारवादी राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी के चुने जाने से ख़ामेनेई के लिए आंतरिक चुनौतियां बढ़ीं। इसके बावजूद, उन्होंने धार्मिक और सैन्य संस्थानों, खासकर IRGC, के समर्थन से अपनी सत्ता को अटल रखा।
इसराइल और अमेरिका के खिलाफ संघर्ष में आयतुल्लाह ख़ामेनेई का इसराइल और अमेरिका के प्रति रुख उनके धार्मिक विश्वास, इस्लामी क्रांति के सिद्धांतों, और पश्चिमी हस्तक्षेप के विरोध पर आधारित है। उन्होंने इन दोनों देशों को ईरान और इस्लाम के दुश्मन के रूप में चित्रित किया और उनके खिलाफ “मजहबी राष्ट्रवाद” को हथियार बनाया।
ख़ामेनेई ने इसराइल को पश्चिम एशिया में एक “कैंसरग्रस्त ट्यूमर” कहा, जिसे उखाड़ फेंकना जरूरी है। उन्होंने इसराइल के अस्तित्व को नकारा और फिलिस्तीन के मुद्दे का कट्टर समर्थन किया।
ख़ामेनेई ने लेबनान में हिज़्बुल्लाह, यमन में हूती, और गाजा में हमास जैसे ईरान समर्थित मिलिटेंट समूहों का समर्थन किया। इस “एक्सिस ऑफ रेसिस्टेंस” ने इसराइल के खिलाफ प्रॉक्सी युद्ध लड़ा।
2024 और 2025 में ईरान और इसराइल के बीच तनाव चरम पर पहुंचा। ख़ामेनेई ने इसराइली हमलों के जवाब में मिसाइल हमलों को “वैध” बताया और मुस्लिम देशों से एकजुट होने की अपील की। 2025 के शुरुआती इसराइली हमलों के बाद उन्होंने कहा कि इसराइल को “कड़ी सजा” मिलेगी। और अब जब इसराइल ने ईरान के परमाणु ठिकानों और सैन्य नेताओं को निशाना बनाया, जिसमें ख़ामेनेई के कई सलाहकार और IRGC कमांडर मारे गए। तब उन्होंने भी इजरायल को उसके बड़े शहरों में मीसाइलों की बौछार से तबाह व बर्बाद कर दिया।
ख़ामेनेई जो अमेरिका को “बड़ा शैतान” कहते हैं और इसे इस्लामी दुनिया में हस्तक्षेप का प्रतीक मानते हैं। 1979 में अमेरिकी दूतावास पर कब्जे की 45वीं वर्षगांठ पर उन्होंने अमेरिका को क्षेत्रीय अशांति का जिम्मेदार ठहराया।
ख़ामेनेई ने 2015 के परमाणु समझौते (JCPOA) का समर्थन किया, लेकिन 2018 में अमेरिका के इससे हटने के बाद उन्होंने बातचीत की संभावना खारिज कर दी। 2025 में उन्होंने अमेरिका को चेतावनी दी कि ईरान के खिलाफ कोई सैन्य कार्रवाई “अपूरणीय क्षति” का कारण बनेगी।
और अब उन्होंने खाड़ी देशों में अमेरिकी बेसों हमला करके अमेरिका को उसकी औकात बता दी। और अंततः अमेरिका को सीजफायर का ऐलान करना पड़ा। देखना पड़ेगा कि यह सीजफायर कितना फलीभूत होता है। जो भी हो
अयातुल्लाह खमनेई इस वक्त विश्व के एक ऐसे ताकतवर और बहादुर लीडर उभर कर आए हैं जिनके साथ रसिया, चीन, नार्थ कोरिया समेत कई देश कंधे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं।