(रईस खान)
“हक़ीक़तों की ज़ुबाँ बंद कर नहीं सकते,
सवाल उठाते हैं, उनको डरा नहीं सकते…”
— साहिर लुधियानवी
जिस देश की जनता हर पाँच साल में अपने हक़ की मुहर लगाती है, वहाँ अगर यह सवाल उठने लगे कि “उसका वोट असल में पड़ा भी था या नहीं?” — तो समझ लीजिए कि लोकतंत्र की बुनियाद में कोई दरार ज़रूर आ गई है।
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने जो आरोप हाल ही में लगाए हैं, वे यूँ ही हवा में उछाले गए राजनीतिक तीर नहीं हैं, बल्कि एक सुनियोजित, आंकड़ों से लैस और महीनों की मेहनत से निकाला गया ‘सियासी हथियार’ है — जिसे सीधे चुनावी प्रणाली के सीने पर दागा गया है।
राहुल गांधी का कहना है कि देश के विभिन्न राज्यों में डुप्लिकेट वोटरों, फर्जी पतों और फॉर्म-6 के दुरुपयोग के जरिए व्यापक स्तर पर “वोट की चोरी” हुई है। उन्होंने न सिर्फ दावा किया, बल्कि तथ्यों और आँकड़ों का एक ऐसा पुलिंदा भी पेश किया जिसने राजनीतिक गलियारों में हड़कंप मचा दिया।
“सियासत ने जिन्हें रोशन किया है,
वही चेहरे अब तारीक़ियाँ बाँटते हैं…”
— जावेद अख़्तर
यह आरोप महज़ चुनाव आयोग या किसी दल विशेष पर हमला नहीं है — यह उस विश्वास पर सवाल है, जिसे हम हर बार चुनाव के समय बूथ पर कतार में खड़े होकर जताते हैं। वोट सिर्फ एक बटन दबाना नहीं होता, यह आम आदमी की आवाज़ होती है — और अगर वही आवाज़ दबा दी जाए, या हज़ारों नकली आवाज़ों में खो जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा कहां टिकेगी?
सवाल यह भी है कि यह मुद्दा अब उठा क्यों? क्या यह एक सोची-समझी रणनीति है जिससे 2029 तक के सियासी नैरेटिव की नींव रखी जा रही है? या यह वास्तव में उस “राजनीतिक विवेक” का जागना है जो सत्ता के गलियारों में खो गया था?
बेशक, इन आरोपों की सत्यता जांच के दायरे में आनी चाहिए। चुनाव आयोग को भी अब अपनी पारदर्शिता को महज़ विज्ञापनों या टीवी डिबेट्स में नहीं, बल्कि सत्यापन, सुधार और संवाद के ज़रिए सिद्ध करना होगा। अगर राहुल गांधी के आरोप झूठे हैं तो उन्हें बेनकाब किया जाए, और अगर सही हैं — तो फिर यह सवाल सिर्फ कांग्रेस या भाजपा का नहीं, बल्कि हर उस मतदाता का है जो अपने वोट को पवित्र समझता है।
“ख़ामोशी भी अब इल्ज़ाम उठाने लगी है,
ये कैसी हवा है जो शक की जड़ें सींचती है…”
— निदा फ़ाज़ली
आज की सियासत में नैरेटिव सबसे बड़ा अस्त्र है। और राहुल गांधी ने “विकास बनाम विश्वासघात” की जिस ज़मीन पर अपना नैरेटिव बोया है, वह अगले चुनावों में कितना लहलहाएगा — यह इस बात पर निर्भर करेगा कि देश की संस्थाएं, मीडिया और जनता इस बीज को पानी देती हैं या नहीं।
लोकतंत्र सिर्फ चुनाव नहीं होता, यह भरोसा होता है — और जब भरोसे की नींव हिलती है, तो सवाल पूछना गुनाह नहीं, फ़र्ज़ होता है।
“जब लोकतंत्र के पहिये पर शक की धूल जमने लगे,
तो ज़रूरत होती है सवालों की हवा से उसे साफ़ करने की —
चाहे वो हवा सत्ता की दीवारों को हिला ही क्यों न दे।