बंटवारे का जख्म और मुस्लिम लीडरशिप की तलाश

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      (रईस खान)

आज़ादी के बाद हिंदुस्तान में मुसलमानों की लीडरशिप मज़बूत क्यों न हो सकी? ये सवाल बहुत गहरा है। अगर इतिहास की तरफ़ देखें तो बँटवारा सबसे बड़ा मोड़ था। पाकिस्तान बनने से मुसलमान तीन हिस्सों में बँट गए भारत, पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश। इसका सबसे बड़ा नुक़सान यही हुआ कि मुस्लिम समाज एक जगह इकट्ठा रहकर ताक़तवर होने के बजाय तीन टुकड़ों में बँट गया।

बँटवारे का ज़ख़्म

बँटवारे के वक़्त बहुत खून-खराबा हुआ, करोड़ों लोग उजड़े। इस सदमे से मुसलमानों की एक बड़ी तादाद ग़रीबी, बेबसी और डर में जीने लगी। जो बड़े लीडर पाकिस्तान चले गए, उनकी वजह से हिंदुस्तान के मुसलमान सियासी श तौर पर अकेले पड़ गए।

“ये कैसी तक़दीर का खेल था,
जहाँ घर थे वहीं बेज़ार हुए।
जो बँटे थे ज़मीन के नक़्शे से,
वो दिलों में भी अश्कार हुए।”

सियासी साज़िश या हालात?

कुछ लोग कहते हैं कि ये सब एक “साज़िश” थी ताकि मुसलमान कमज़ोर हो जाएं। हक़ीक़त ये है कि बँटवारे के फ़ैसले में अंग्रेज़ों की “फूट डालो और राज करो” की नीति, हिंदू और मुस्लिम लीडरों की जिद और उस वक़्त के हालात सब शामिल थे।
नतीजा ये हुआ कि मुसलमान जहाँ भी रहे, वो अपनी क़ौमी सियासत में एक मज़बूत “कलेक्टिव लीडरशिप” नहीं बना पाए।

तालीम और कारोबार में पिछड़ना

लीडरशिप हमेशा वहीं से निकलती है जहाँ तालीम और कारोबार मज़बूत हों। मुसलमानों की एक बड़ी आबादी आज़ादी के बाद तालीम और कारोबार में पिछड़ गई। सरकारी नौकरियों और बड़े कारोबार में उनकी हिस्सेदारी बहुत कम हो गई। जब तालीम और दौलत न हो, तो सियासत में भी आवाज़ बुलंद करना मुश्किल हो जाता है।

बिखराव और अंदरूनी कमज़ोरी

मुसलमानों के अंदर भी मज़हबी, फ़िक़ही और इदारती (संस्थागत) बिखराव रहा। शिया-सुन्नी, देवबंदी-बरेलवी, अलीगढ़ी-दूसरे, इसने एक “कॉमन विज़न” नहीं बनने दिया। नतीजा ये कि लीडरशिप कभी एकजुट होकर सामने न आई।

पिछड़ते जाने का एहसास क्यों?

आज भी मुसलमानों में ये एहसास इसलिए है क्योंकि उनकी तालीम का औसत बहुत कम है। कारोबार और उद्योगों में उनका योगदान सीमित है।सियासत में उनकी आवाज़ अक्सर बंटी हुई है। मीडिया और नुमाइंदगी में उनकी सूरत कमजोर दिखती है।

आखिर रास्ता क्या है?

अगर मुस्लिम समाज को तालीम, कारोबार और एख़लाक़ के साथ आगे बढ़ाया जाए, तो लीडरशिप खुद-ब-खुद उभरेगी। लीडर सिर्फ “सियासी मंच” से नहीं, बल्कि “स्कूल, यूनिवर्सिटी, बिज़नेस और सोशल वर्क” से ही पैदा होते हैं।

बँटवारे ने मुसलमानों को तीन हिस्सों में बाँटकर कमज़ोर किया, लेकिन असली वजह तालीम और कारोबार से दूर होना है। “साज़िश” का पहलू भी रहा, लेकिन अगर क़ौम अपने हालात खुद बदलने का इरादा करे, तो कोई साज़िश कामयाब नहीं हो सकती।

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