22 रबीउल अव्वल, खिराज़ ए अक़ीदत-तसव्वुफ़, इत्तिहाद और इंसानियत का नाम, हज़रत फ़ज़ल-ए-रहमां शाह

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                   (रईस खान)
उन्नाव के छोटे से कस्बे गंजमुरादाबाद से एक ऐसी रूहानी रोशनी उठी जिसने सदियों तक हिंदुस्तान की ज़मीन को मोहब्बत, इंसानियत और इत्तिहाद का पैग़ाम दिया। यह रोशनी थी हज़रत मौलाना फ़ज़ल-ए-रहमान शाह गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाह अलैह की, जिनकी दरगाह आज भी हिंदू-मुस्लिम दोनों बिरादरियों के लिए सुकून और मोहब्बत का मरकज़ है।

हज़रत की पैदाइश 18वीं सदी के आख़िरी दौर में हुई। बचपन से ही इल्म-ओ-फ़ज़्ल की तलब उन्हें दीनी और दुनियावी दोनों तालीम की तरफ़ खींच लाई। उन्होंने कुरआन-ओ-हदीस का गहरा मुताला किया और तसव्वुफ़ के रास्ते पर चल पड़े। उनकी ख़ानक़ाह महज़ इबादतगाह नहीं बल्कि मदारस-ए-इंसानियत थी , जहाँ लोगों को मोहब्बत, सब्र और बर्दाश्त का दर्स मिलता।

हज़रत फ़ज़ल-ए-रहमां का असल पैग़ाम था “नफ़रत मिटाओ, मोहब्बत फैलाओ”। उनकी महफ़िलों और दरगाह पर हर मज़हब के लोग आते और दुआ मांगते। यही वजह है कि गंजमुरादाबाद की सरज़मीं हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद की शानदार मिसाल बन गई।आज भी उर्स के मौक़े पर हिंदू और मुस्लिम दोनों बिरादरियाँ बराबर की अकीदत के साथ हाज़िर होती हैं।

हज़रत सिर्फ़ सूफ़ी ही नहीं, बल्के अदीब और इल्मी शख़्सियत भी थे। उनकी मशहूर किताब “मनमोहन की बातें” खुदाबख़्श लाइब्रेरी पटना से प्रकाशित हुई।

बताया जाता है कि उन्होंने कुरआन की तक़रीबन 40 सूरहों का ठेठ ब्रजभाषा में तरजुमा भी किया, जो उनकी ज़बान और तहज़ीबी वुसअत की बेहतरीन मिसाल है। उनके बारे में नदवतुल उलमा ,लखनऊ से भी तज़्किरा और स्वानेह हयात जैसी किताबें प्रकाशित हुईं।

हज़रत ने सियासी मैदान में सीधा मोर्चा नहीं खोला, मगर उनकी तालीमात ने ग़ुलामी के ख़िलाफ़ जज़्बा और आज़ादी की चाहत को मज़बूत किया। उनके मुरीद और शागिर्द उस रूहानी ताक़त से सरशार होकर मुल्क की बुनियाद में अपनी भूमिका अदा करते रहे।

गंजमुरादाबाद की बुनियाद मुग़ल दौर में रखी गई थी, मगर इसकी असली पहचान बनी हज़रत शाह गंजमुरादाबादी की वजह से। यहाँ की गलियाँ और दरगाह आज भी गवाह हैं कि एक सूफ़ी बुज़ुर्ग ने पूरे कस्बे को मोहब्बत, इल्म और रूहानियत का मरकज़ बना दिया।

आज जब दुनिया नफ़रत और तअस्सुब की आग में जल रही है, हज़रत फ़ज़ल-ए-रहमां की तालीमात हमें याद दिलाती हैं, इंसानियत मज़हब से ऊपर है।मोहब्बत से ही दिल जीते जा सकते हैं।इत्तिहाद ही क़ौम की तरक़्क़ी की कुंजी है।

हज़रत मौलाना फ़ज़ल-ए-रहमान शाह गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाह अलैह की ज़िंदगी दरअसल एक आईना है ,जिसमें मोहब्बत, इल्म और इंसानियत की झलक नज़र आती है। अगर हम उनके पैग़ाम को आज भी अपनाएँ तो यक़ीनन समाज में अमन, भाईचारा और मोहब्बत की फ़ज़ा पैदा हो सकती है।

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