क्या जमानत ही इंसाफ़ है? मुस्लिम नेताओं के मुक़दमों की हक़ीक़त

Date:

(रईस खान)
क़यास लगाए जा रहे हैं शायद मुस्लिम समाज के प्रमुख सियासी लीडर आज़म ख़ान जल्द ही जमानत पर जेल से रिहा कर दिए जाएं। लेकिन क्या यह जमानतें उनके जैसे कद्दावर और उम्रदराज शख्सियत के लिए इंसाफ है..? ज़ाहिर है अभी फैसलों के लिए बरसों बरस का फासला तय करना पड़ेगा। क्या इंसाफ़ और न्याय का यही तकाज़ा है..? और बेशक वह ऐसे अकेले मुस्लिम सियासी लीडर नहीं हैं जिन्हें इस तरह की जिल्लत का सामना करना पड़ रहा है। आइए देखते हैं इनके और दूसरों के मामलों में हो क्या रहा है..?

भारत में अदालत और सियासत की दुनिया में आजकल एक अल्फ़ाज़ बहुत आम हो गया है – जमानत। जब किसी बड़े मुस्लिम नेता या उनके घराने के किसी शख़्स को जमानत मिलती है तो उनके हामीं इसको इंसाफ़ की जीत समझते हैं। लेकिन असलियत ये है कि जमानत महज़ एक कानूनी राहत होती है, इसका मतलब ये नहीं कि इंसान बेगुनाह साबित हो गया या मामला खत्म हो गया। इसके बावजूद, हालात ऐसे बने हैं कि समाज में जमानत को ही इंसाफ़ की निशानी मान लिया गया है।

आज़म ख़ान और उनके बेटे अब्दुल्ला आज़म के मामले को देखिए। उन पर दरजनों मुक़दमे हैं। कुछ में उन्हें जमानत मिल चुकी है, लेकिन दूसरे मुक़दमों की वजह से वे महीनों तक जेल से बाहर नहीं आ पाए। उनके हामियों को ये लगता है कि उन पर सियासी साज़िश रची गई और जब उन्हें जमानत मिली तो लोगों ने इसे इंसाफ़ कहा। यही हाल अंसारी ख़ानदान का है। मुख़्तार अंसारी के इंतिक़ाल के बाद भी उनके बेटे अब्बास और उमर अंसारी कई मुक़दमों में फँसे हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें राहत मिली, लेकिन मुक़दमे अब भी चल रहे हैं। उनके चाहने वाले हर जमानत को कामयाबी मानते हैं, जबकि उनके मुख़ालिफ़ कहते हैं कि ये तो सिर्फ़ क़ानूनी चाल है।

सहारनपुर का इक़बाल ख़ानदान भी इसी तरह की मुश्किलात का सामना कर रहा है। हाजी इक़बाल और उनके बेटों पर खनन और मनी लॉन्ड्रिंग के इल्ज़ामात हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बेटों को ज़मानत दी मगर बाक़ी मामलों की वजह से ये राहत अधूरी साबित हुई। कानपुर में सोलंकी ख़ानदान का हाल भी जुदा नहीं। इरफ़ान सोलंकी पर ज़मीन क़ब्ज़ा और आगज़नी जैसे संगीन इल्ज़ामात हैं। कहीं उन्हें जमानत मिलती है, कहीं सज़ा भी हो चुकी है। उनके हामियों के नज़दीक ये सब सियासी दुश्मनी का नतीजा है, लेकिन आम लोग इसे जुर्म की सज़ा मानते हैं।

मुंबई में नवाब मलिक का वाक़िआ भी बड़ी मिसाल है। उन्हें मनी लॉन्ड्रिंग के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार किया गया। बाद में अदालत ने उनकी तबीयत की वजह से उन्हें जमानत दी। उनके हामियों ने इसे इंसाफ़ कहा, मगर उनके मुख़ालिफ़ों ने इसे बीमारी का बहाना बताया। इसी तरह सिद्दीक़ कप्पन नामी सहाफ़ी को हाथरस वाक़िआ की रिपोर्टिंग पर गिरफ़्तार किया गया। वे महीनों जेल में रहे, जब उन्हें जमानत मिली तो पूरे मुल्क में इसे इन्साफ़ और आज़ादी की जीत कहा गया।

इन सब वाक़िआत से एक धारणा बनती है कि जमानत को ही इंसाफ़ समझ लिया गया है। इसकी वजहें भी हैं। मुस्लिम नेताओं और उनके घरानों का तजुर्बा ये है कि उन्हें अक्सर टार्गेट किया जाता है, मुक़दमे सालों साल चलते रहते हैं और फ़ैसला आने में बहुत वक़्त लगता है। जब मुक़दमा लम्बा खिंच जाए तो जमानत मिलना ही राहत और जीत मालूम होती है। मीडिया भी हर जमानत को बड़ी ख़बर बना देता है और इससे लोगों को लगता है कि अदालत ने इंसाफ़ कर दिया।

मगर सच्चाई ये है कि जमानत इंसाफ़ नहीं है। ये सिर्फ़ एक वक़्ती राहत है। मुक़दमे चल रहे हैं, इल्ज़ाम बाक़ी हैं और अदालत का आख़िरी फ़ैसला ही असली इंसाफ़ होगा। लेकिन जब तक अदालतें फ़ैसले जल्दी नहीं देतीं, समाज मजबूरी में जमानत को ही इंसाफ़ मानने लगता है। यही वजह है कि आज जमानत हमारे मुल्क की सियासत और समाज में इंसाफ़ का दूसरा नाम बन गई है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Share post:

Subscribe

spot_img

पॉपुलर

और देखे
और देखे

तारिक हलाल मीट्स: हलाल मीट की दुनिया में एक नया चैप्टर 

लंदन के बेथनल ग्रीन की हलचल भरी सड़कों पर,...

गुफ्तगू-2025 — रियल एस्टेट की नई राहें तलाशती लखनऊ की अहम बैठक

(रईस खान) लखनऊ के हरदोई रोड स्थित अज़्म इंटरप्राइजेज कार्यालय...

पीएमओ में हंगामा: मोदी के करीबी हीरेन जोशी ‘गायब’, प्रसार भारती चेयरमैन सहगल ने दिया इस्तीफा

(रईस खान) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय (पीएमओ) में अचानक...