(रईस खान)
ज़रा सोचिए कि अदालत की कुर्सी पर बैठे हुए जज साहब का हर लफ़्ज़ कितना भारी होता है। उनके बोलने से सिर्फ़ एक मुक़दमा नहीं बल्कि पूरा समाज प्रभावित होता है। पिछले दस सालों की दास्तान में कई ऐसे वाक़ये दर्ज हुए हैं जहाँ अदालत की जुबान फिसली और उसके छींटे सीधे मुस्लिम समाज पर पड़े। आइए, इस कहानी को सिलसिलेवार सुनें।
2015 के आसपास एक केस में सुनवाई के दौरान हिजाब और पर्दा को लेकर अदालत में ऐसे तंज़ किए गए, जिन्हें बहुतों ने तिरस्कार की नज़र से देखा। ये बातें फैसले का हिस्सा नहीं बनीं, मगर अदालत की चारदीवारी से बाहर निकलकर बहस का हिस्सा ज़रूर बन गईं। मुसलमान समाज को लगा कि जज की नज़र में उनका तहज़ीबी लिबास मज़ाक़ का विषय है।
2017–2018 में जब ट्रिपल तलाक़ का मसला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा, तो कई सुनवाइयों में जजों के लफ़्ज़ सुर्ख़ियाँ बने। कुछ टिप्पणियाँ क़ानूनी बहस का हिस्सा थीं लेकिन मीडिया और समाज में उन्हें “मुस्लिम पर्सनल लॉ पर सख़्त टिप्पणी” के रूप में लिया गया। इससे बहस छिड़ गई कि क्या जज साहब धार्मिक मसलों को समझते हुए बोल रहे हैं या अपनी व्यक्तिगत राय थोप रहे हैं।
2020 के साल में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और एनआरसी की गहमागहमी थी। दिल्ली दंगों पर सुनवाई के दौरान कुछ अदालतों में इस अंदाज़ की टिप्पणियाँ आईं कि “अत्यधिक मस्जिदों में दिए जाने वाले बयान उकसाने वाले होते हैं।” ये टिप्पणियाँ भले ही केस के दस्तावेज़ों में संदर्भित हों, मगर जनता की नज़र में ये मुसलमानों पर सीधे आरोप लगाती प्रतीत हुईं।
2022 का वाक़या याद कीजिए जब हिजाब विवाद कर्नाटक हाई कोर्ट में पहुँचा। अदालत ने अंततः आदेश दिया कि यूनिफ़ॉर्म सर्वोपरि है, लेकिन सुनवाई के दौरान कई बार ऐसे लफ़्ज़ निकले जिनमें यह आभास मिला कि हिजाब सिर्फ़ “मजहबी जिद” है। मुसलमान बेटियों ने इसे अपनी अस्मिता पर चोट माना। अदालत के फैसले से ज़्यादा उसके दौरान की टिप्पणियाँ गली-मोहल्लों में चर्चित हो गईं।
2023 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर कुमार यादव का भाषण सामने आया। अदालत की कुर्सी छोड़कर सार्वजनिक मंच पर बोलते हुए उन्होंने ऐसे लफ़्ज़ कहे, जिनमें मुसलमानों को लेकर नकारात्मकता झलकती थी। यह मामला इतना बढ़ा कि महाभियोग की मांग तक उठ गई। इस दास्तान ने ये सवाल उठाया कि क्या जज मंच और अदालत में अलग-अलग शख़्सियत लेकर बैठते हैं?
2024–25 की सबसे ताज़ा कहानी कर्नाटक हाई कोर्ट के जज वेदव्यासाचार श्रीशानंद की है। सुनवाई के दौरान उन्होंने बेंगलुरु के मुस्लिम बहुल इलाक़े ‘गोरी पलया’ को पाकिस्तान कह दिया। वीडियो फैला, सोशल मीडिया भड़क उठा, सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया और जज को खेद जताना पड़ा। मगर यह घटना इस बात का प्रतीक बन गई कि ज़ुबान की एक चूक से संविधान की आत्मा तक हिल सकती है।
इन दस सालों की इस कहानी में एक धागा साफ़ दिखाई देता है, जब भी जजों के लफ़्ज़ तटस्थता की सरहद पार करते हैं, मुसलमान समाज में गहरी कसक पैदा होती है। कभी यह कसक गुस्से का रूप लेती है, कभी अविश्वास का। अदालतें भले ही बाद में सफाई दें, लेकिन “इन्साफ़” का भरोसा टूटने लगता है। और यही भरोसा तो अदालत की असली ताक़त है।
इस दास्तान का सबक यही है कि जज का हर लफ़्ज़ कानून से भी बड़ा असर रखता है। इंसाफ़ का तख़्त तभी मज़बूत रहेगा जब उसकी ज़ुबान में ईमानदारी एहतराम बरकरार रहेगा।