(रईस खान)
अब एक बार फिर चैनलों को नोटिस देकर सवाल उठाया जा रहा है कि हिंदी मीडिया में उर्दू के शब्द क्यों इस्तेमाल हो रहे हैं ? लेकिन ज़रा सोचिए, भाषा का असली मक़सद क्या है? लोगों तक बात पहुँचाना और उन्हें समझाना, न कि उन्हें उलझाना।
हिंदी और उर्दू दोनों एक ही मिट्टी से निकली जुबानें हैं। दोनों का आधार वही हिंदुस्तानी ज़ुबान है, जो सदियों से हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब की पहचान रही है। यही वजह है कि हमारे रोज़मर्रा के बोलचाल में कभी संस्कृत से आए शब्द इस्तेमाल होते हैं, तो कभी फ़ारसी या अरबी से। और कभी अंग्रेज़ी से भी, जैसे ट्रेन, मोबाइल, कंप्यूटर।
अगर आप फिल्मों या गानों को देखें तो वहाँ उर्दू लफ़्ज़ों की भरमार मिलेगी। मशहूर लेखक प्रेमचंद ने भी अपनी कहानियों और उपन्यासों में आसान जुबान बनाने के लिए खूब उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया। क्योंकि उनका मक़सद था कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग उनकी बात समझ सकें।
तो फिर आज यह सवाल क्यों उठाया जा रहा है? असल में, समस्या भाषा में नहीं है, बल्कि भाषा को लेकर पैदा की जाने वाली राजनीति में है। किसी भी ज़ुबान को “अपनी” और “पराई” बना देना समाज को बाँटने की कोशिश है।
भाषा कोई हथियार नहीं, बल्कि समझ और मोहब्बत का ज़रिया है। हिंदी और उर्दू दोनों भारतीयों की ज़ुबानें हैं। इन्हें लड़ाने के बजाय हमें इस मिलीजुली विरासत पर गर्व करना चाहिए।
सच यह है कि भाषा हमें जोड़ती है, तोड़ती नहीं। इसलिए ज़रूरत है कि भाषा के नाम पर होने वाला खेल बंद हो और ज़ुबान को वही रहने दिया जाए जो वह असल में है,लोगों के दिलों को जोड़ने वाला पुल।