(रईस खान)
मुंबई से सटा हुआ ठाणे का इलाक़ा मुंब्रा, जिसकी पहचान एक घनी आबादी वाले मुस्लिम बहुल बस्ती की है, पिछले दो दशकों से सरकारी बुलडोज़रों और कानूनी पचड़ों के साए में जी रहा है। लाखों की तादाद में लोग यहाँ रहते हैं, मगर ज़्यादातर के घरों पर “ग़ैरक़ानूनी” होने का ठप्पा लगा हुआ है।
मुंब्रा की कुल आबादी अलग-अलग रिपोर्टों में 5 से 9 लाख बताई जाती है, जिसमें ज़्यादातर तबक़ा मेहनतकश, नौकरीपेशा और प्रवासी मुसलमानों का है। मुंबई में जगह की तंगी और आसमान छूते दामों ने लोगों को मुंब्रा जैसे इलाक़े में बसने पर मजबूर किया। लेकिन आबादी के इस तेज़ इज़ाफ़े के बावजूद, यहाँ इन्फ्रास्ट्रक्चर और प्लानिंग पर कभी ग़ौर नहीं किया गया।
सरकारी तोड़फोड़: घरों पर बुलडोज़र की मार
ठाणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (TMC) की रिपोर्ट के मुताबिक़, इलाके में 909 इमारतें ग़ैरक़ानूनी घोषित की गई हैं, जिनमें से अब तक 175 इमारतें पूरी तरह ढहा दी गईं और 52 को आंशिक तौर पर तोड़ा गया। यह आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि हर वक़्त दर्जनों परिवार उजड़ने के ख़तरे में हैं।
बंबई हाईकोर्ट ने भी कई मामलों में सीधे हस्तक्षेप किया। शिल और मुंब्रा की 17 इमारतों के बारे में कोर्ट ने कहा कि इन्हें गिराना होगा, जिससे लगभग 400 परिवार प्रभावित हो सकते हैं। यह आदेश जितना कानूनी दायरे में है, उतना ही इंसानी त्रासदी को जन्म देता है।
इंसानी त्रासदी: उजड़े सपनों की दास्तान
शाहबाज़ मलिक, जिनका फ़्लैट तोड़ा गया, रोते हुए कहते हैं:
“मैंने माँ का ज़ेवर गिरवी रखकर यह घर ख़रीदा था। अब मेरे पास कुछ नहीं बचा। फिर से किराये पर जाना पड़ा।” अयूबी ख़ान की कहानी भी कुछ ऐसी ही है: “25 साल की मेहनत के बाद घर ख़रीदा, लेकिन दो महीने में ही तोड़ दिया गया। अब फिर से किराये का बोझ।” ये आवाज़ें इस बात का सबूत हैं कि यहाँ की जंग सिर्फ़ क़ानूनी कागज़ात की नहीं, बल्कि इंसानी ज़िंदगी और उम्मीदों की है।
दस्तावेज़ों का जाल: नोटरी समझौते बनाम रजिस्टर्ड डीड
कई प्रभावित परिवारों के पास सिर्फ़ नोटरी एग्रीमेंट हैं, जबकि असली सेल-डीड कभी दर्ज़ ही नहीं की गई। स्थानीय अधिवक्ता मुनाफ़ ख़ान बताते हैं:
“एक इमारत रातों-रात नहीं बन जाती। TMC और प्रशासन ने पहले क्यों नहीं रोका? अब बेगुनाह खरीदारों को सज़ा दी जा रही है। हम दस्तावेज़ों की जाँच कर प्रभावितों के हक़ में मुक़दमा लड़ेंगे।”
एक्टिविज़्म और संगठनों की भूमिका
स्थानीय NGO और नागरिक मंचों ने प्रभावितों की कानूनी मदद और डॉक्युमेंटेशन का काम हाथ में लिया है। NGO अध्यक्ष शिव नारायण शर्मा, अधिवक्ता मुन्नाफ़ ख़ान, अमीना ख़ान, और एक्टिविस्ट नितेश सिंह जैसे लोग इस आंदोलन में खुलकर शामिल हुए। उन्होंने निवासियों से कहा कि वे अपने कागज़ात जमा करें और सामूहिक रूप से बिल्डरों और TMC के ख़िलाफ़ कार्रवाई करें।
बुनियादी समस्याएँ: सिर्फ़ डेमोलिशन ही नहीं
पानी की कमी है।रोज़ाना सप्लाई बेहद कम, ज़्यादातर लोग महंगे टैंकरों पर निर्भर हैं। गटर और सड़कों का बुरा हाल है।40% से ज़्यादा गटर जाम या टूटी हुई, बरसात में घुटनों तक पानी भरता है। हेल्थ और एजुकेशन को देखें तो लाखों की आबादी के लिए सिर्फ़ एक बड़ा सरकारी अस्पताल, और गिनती के सरकारी स्कूल हैं। रोज़गार की तंगी झेल रहे नौजवानों में 30–35% बेरोज़गार, मज़बूरी में अपराध और नशे की लत का ख़तरा है।
मुंब्रा बचाओ आंदोलन सिर्फ़ इमारतें बचाने का संघर्ष नहीं, बल्कि यह इंसानी हक़, रिहाइश, और बेहतर ज़िंदगी की जद्दोजहद है। यह लड़ाई बिल्डरों की धांधलियों, सरकारी लापरवाही और प्रशासनिक दोहरे मापदंडों के ख़िलाफ़ है। मुंब्रा के रहवासी, सामाजिक संगठनों और पॉलिटिकल नुमाइंदों को चाहिए कि वे इस लड़ाई में साथ दें। क्योंकि यहाँ के लोग सिर्फ़ घर नहीं, बल्कि अपनी इज़्ज़त और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं।