(रईस खान)
मुंबई की चमक-दमक और गगनचुंबी इमारतों के पीछे एक कड़वी हक़ीक़त छुपी है, वह है ग़रीब और मेहनतकश तबक़े की बस्तियाँ, जिन्हें आजकल बुलडोज़रों के साये में जीना पड़ रहा है। ठाणे ज़िले का मुंब्रा, जिसकी पहचान एक मुस्लिम बहुल आबादी वाले इलाक़े के तौर पर होती है, पिछले कई सालों से इस जद्दोजहद का सबसे बड़ा निशाना बना हुआ है।
आज हालात यह हैं कि मुंब्रा में हज़ारों परिवारों के सिर पर हर वक़्त उजड़ने का ख़तरा मंडरा रहा है। ठाणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन का दावा है कि यहाँ नौ सौ से ज़्यादा इमारतें ग़ैरक़ानूनी हैं। इनमें से सैकड़ों पर कार्रवाई हो चुकी है और बाकी पर तलवार लटक रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ़ तोड़फोड़ ही इंसाफ़ है? या यह सिर्फ़ कमज़ोर और हाशिये पर खड़े समाज पर एकतरफ़ा सख़्ती है?
बिल्डर–अफसर खेल
मुंब्रा की आबादी पिछले दो दशकों में तेज़ी से बढ़ी। मुंबई में जगह और दाम दोनों की तंगी ने ग़रीब और मिडिल क्लास मुसलमानों को यहाँ बसने पर मजबूर किया। लेकिन इसी दौरान बिल्डरों और प्रशासन ने मिलकर एक ऐसा खेल खेला जिसमें सबसे ज़्यादा नुकसान आम जनता का हुआ। बड़ी तादाद में फ्लैट नोटरी एग्रीमेंट पर बेचे गए, असली सेल-डीड दर्ज़ ही नहीं की गई। कई इमारतें मंज़ूरशुदा नक़्शे से ज़्यादा मंज़िलों तक खड़ी कर दी गईं। ठाणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के अधिकारी और पुलिस ने या तो आँखें मूंद लीं या फिर रिश्वत लेकर अनुमति दी।
आज जब अदालत और प्रशासन कार्रवाई कर रहे हैं, तो बिल्डर और अफ़सर आसानी से बच निकलते हैं, और बेगुनाह ख़रीदार सड़क पर आ जाते हैं। यही सबसे बड़ी नाइंसाफ़ी है।
लीडरशिप की खामोशी
इस मसले पर मुस्लिम लीडरशिप की भूमिका सवालों के घेरे में है। ज़्यादातर नेताओं ने जनता के ग़ुस्से को सिर्फ़ सियासी भाषणों और प्रेस स्टेटमेंट्स तक सीमित रखा। कुछ वकील और एक्टिविस्टों ने कोशिश की है कि दस्तावेज़ इकट्ठे हों और सामूहिक मुक़दमे दायर किए जाएं, लेकिन यह प्रयास बिखरे-बिखरे हैं।
आम लोग महसूस करते हैं कि “नेता सिर्फ़ वोट के वक़्त आते हैं, लेकिन जब घर गिरता है तो हमें अदालत में अकेले खड़ा होना पड़ता है।” अगर लीडरशिप वाक़ई ईमानदार होती, तो अब तक कलेक्टिव लीगल फंड, डॉक्युमेंटेशन ड्राइव और पुनर्वास पॉलिसी पर ठोस पहल हो चुकी होती।
कोर्ट बनाम अवाम
बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि अवैध निर्माण को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इसी वजह से कई इमारतों को गिराने के आदेश भी दिए गए। लेकिन अदालतों ने यह भी माना कि रेग्युलराइज़ेशन, जुर्माना लेकर वैध करना और सुरक्षित पुनर्वास जैसे विकल्प भी मौजूद हैं।
मुंबई और आसपास के इलाक़ों में लाखों इमारतें अवैध कैटेगरी में आती हैं। अगर सबको गिरा दिया जाए तो आधा मुंबई बेघर हो जाएगा। लेकिन हक़ीक़त यह है कि सख़्ती सबसे ज़्यादा उन्हीं इलाक़ों में दिखाई जाती है, जो ग़रीब, मुस्लिम या कमज़ोर तबक़े से जुड़े हैं। यही दोहरा मापदंड इंसाफ़ पर सवाल खड़ा करता है।
इंसानियत का सवाल
इंसानियत और इंसाफ़ दोनों यही कहते हैं कि जिन लोगों ने अपनी ज़िंदगी की पूँजी लगाकर घर ख़रीदे हैं, उन्हें बेघर करना आख़िरी हल नहीं हो सकता। असली गुनाहगार बिल्डर और भ्रष्ट अफ़सर हैं, जिन पर सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए। प्रभावित परिवारों को सुरक्षित पुनर्वास और मुआवज़ा मिलना चाहिए। और जो इमारतें तकनीकी तौर पर मज़बूत और रहने लायक़ हैं, उन्हें जुर्माना लेकर रेग्युलराइज़ किया जाए।
भेदभाव का ज़हर
क्या यह महज़ इत्तेफ़ाक़ है कि बुलडोज़र ज़्यादातर मुस्लिम बहुल इलाक़ों में ज़्यादा चलता है? जब पाली हिल, बांद्रा, विले पार्ले, अंधेरी जैसे इलाक़ों में भी अवैध फ़्लोर और एफएसआई उल्लंघन मौजूद हैं, तो वहाँ सख़्ती क्यों नहीं? यह भेदभाव ही है जो मुंब्रा जैसे इलाक़ों में रहने वालों के दिल में गहरी कड़वाहट और बेबसी भर देता है।
रास्ता क्या है?
अगर सचमुच क़ानून और इंसाफ़ सबके लिए बराबर है, तो समाधान यही होना चाहिए कि पूरे मुंबई महानगर क्षेत्र के लिए एक समान नीति बने। रेग्युलराइज़ेशन और टैक्स सिस्टम लाया जाए ताकि नगर निगम को राजस्व भी मिले और जनता बेघर भी न हो। बिल्डरों पर केस चलाकर उनकी संपत्ति ज़ब्त की जाए। भ्रष्ट अफ़सरों पर कड़ी कार्रवाई हो। और प्रभावित परिवारों को यह भरोसा दिलाया जाए कि उनका सिर से छत नहीं छीनी जाएगी।
नतीजा, इंसाफ़ या बुलडोज़र?
मुंब्रा का मसला सिर्फ़ “अवैध इमारतों” का नहीं है, बल्कि यह सिस्टम की नाकामी और समाज पर दोहरे मापदंड का आईना है। बुलडोज़र से घर ढहाना आसान है, लेकिन इंसाफ़ और इंसानियत के तक़ाज़े को पूरा करना मुश्किल।
अगर अदालतें, प्रशासन और लीडरशिप वाक़ई ईमानदार हैं तो उन्हें यह साबित करना होगा कि क़ानून सबके लिए बराबर है, चाहे इलाका अमीरों का हो या ग़रीबों का, मुसलमानों का हो या किसी और का।
आज मुंब्रा से उठी आवाज़ सिर्फ़ एक मोहल्ले की नहीं, बल्कि पूरे मुल्क के लिए एक पैग़ाम है: घर तोड़ना आसान है, इंसाफ़ देना मुश्किल। और बिना इंसाफ़ के न इंसानियत पूरी होती है, न समाज।