(रईस खान)
जुमे की नमाज़ के बाद बरेली की गलियों में जब नौजवानों की भीड़ उमड़ी, तो हवा में सिर्फ़ नारों का शोर नहीं था, बल्कि बेचैनियों और हताशाओं का भी अक्स था। फिर जो कुछ हुआ, वो नया नहीं था , पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़प, गिरफ्तारियाँ, और दूसरे दिन वही नौजवान मीडिया के सामने पेश किए गए, सिर झुकाए, आँखों में शर्म और होंठों पर माफ़ी। उन्होंने कहा, “हम बहकावे में आ गए थे, आइंदा ऐसा नहीं करेंगे।”
लेकिन सवाल यही है कि बार-बार बहकावे में क्यों यही नौजवान आते हैं? क्यों हर बार गिरफ्तारी की गाड़ियों में वही चेहरे भरे जाते हैं? क्यों अदालतों और थानों के चक्कर काटते परिवारों में सबसे ज़्यादा दर्दमंद वही लोग दिखते हैं?
नौजवान, बेगुनाही से गुनहगार तक का सफ़र
यह सिलसिला सिर्फ़ बरेली का नहीं है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, देश का नक़्शा उन कहानियों से भरा पड़ा है जहाँ मुस्लिम नौजवान या तो गिरफ्तारी का शिकार हुए या पुलिस की गोलियों से गिर पड़े। राँची का मुडास्सिर आलम, 15 बरस का बच्चा, जिसने किताबें सँभालनी थीं, वो गोली से ज़ख़्मी होकर अस्पताल पहुँचा और फिर ज़िंदगी से हाथ धो बैठा। बिहार शरीफ़ में रामनवमी के दौरान मासूम बच्चे तक उठा लिए गए, जिनका जुर्म सिर्फ़ इतना था कि वे “गलत वक़्त पर गलत जगह” खड़े थे। राजस्थान और हैदराबाद के कई मामले तो ऐसे हैं जहाँ इल्ज़ामों की बुनियाद ही खोखली थी, पुलिस ने “कहानी” बनाई और मीडिया ने उसे बढ़ा-चढ़ाकर चला दिया।
घर-परिवार की तबाही
गिरफ्तार होने वाले नौजवान से ज़्यादा दर्द उसके घरवालों का होता है। बूढ़े बाप की आँखें थाने के दरवाज़े पर पत्थर बन जाती हैं। माँ का दिल हर रात रो-रोकर सूख जाता है। छोटी बहन या भाई का स्कूल छूट जाता है क्योंकि अब घर में वकील की फ़ीस और ज़मानत के लिए पैसे जुटाने हैं। नौजवान की पढ़ाई और रोज़गार का सफ़र जेल की सलाखों में अटक जाता है। ये सिर्फ़ एक गिरफ्तारी नहीं होती, बल्कि पूरे कुनबे का बिखरना होता है।
भीड़ और राजनीति के खेल में फँसा नौजवान
हक़ीक़त ये है कि ये नौजवान गुनहगार से ज़्यादा, सियासत और रहनुमाई के “खेल” का मोहरा होते हैं। रहनुमा भीड़ को बुलाते हैं, नारे लगवाते हैं, माहौल गरमाते हैं, लेकिन जब हालात बिगड़ते हैं, तो वही नौजवान पुलिस की लाठियों और अदालत की तारीख़ों के बीच पिसते हैं। रहनुमा अपने घरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं, लेकिन भीड़ में खड़ा ग़रीब लड़का अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर बैठता है।
सिस्टम की बेरुख़ी और समाज की चुप्पी
पुलिस की एक गोली या अदालत की एक तारीख़ ज़िंदगी की दिशा बदल देती है। लेकिन समाज और मीडिया का बड़ा हिस्सा उन्हें सिर्फ़ “आरोपी” या “बवालख़ोर” के टैग से देखता है। जब तक सच्चाई सामने आती है, उनकी इज़्ज़त, तालीम और करियर सबकुछ बर्बाद हो चुका होता है। यह खेल हर शहर, हर रियासत में दोहराया जा रहा है।
असल सवाल, कब बदलेगा ये मंजर?
क्या वाक़ई ये नौजवान इतने ख़तरनाक हैं कि हर बार इन्हें ही “गुनहगार” ठहराया जाए? या फिर ये हमारे मुल्क के सिस्टम और सियासी चालों का शिकार हैं? बेरोज़गारी, तालीम की कमी और रहनुमाओं की गैर-ज़िम्मेदारी ने इन्हें उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ भीड़ की सियासत इनकी जवानी को निगल रही है।
बरेली के नौजवानों का “माफ़ीनामा” सिर्फ़ एक घटना नहीं है। यह उन तमाम दर्दनाक कहानियों का आईना है जो इस मुल्क के अलग-अलग कोनों से बार-बार सामने आती हैं। जब तक रहनुमा अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझेंगे, जब तक तालीम और रोज़गार की राह नहीं खोली जाएगी, तब तक हर बार वही नौजवान जेल जाएगा, वही नौजवान गोली का निशाना बनेगा, और वही नौजवान भीड़ का मोहरा साबित होगा।