(रईस खान)
बरेली के मौलाना तौकीर रज़ा की गिरफ्तारी ने उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे मुल्क के मुस्लिम समाज में हलचल पैदा कर दी है। गिरफ्तारी का कारण था “I Love Muhammad” आंदोलन, जिसने देखते-देखते धार्मिक जज़्बात को भीड़ के ग़ुस्से में बदल दिया। नतीजा, लाठीचार्ज, झड़प और अब गिरफ्तारी।
जेल जाते ही मौलाना के हक़ में आवाज़ें उठीं। बरेलवी मसलक के उलेमा, मदरसे और दूसरे मुस्लिम तबके सड़कों पर उतर आए। सोशल मीडिया पर #FreeTauqeerRaza जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे।जमात-ए-इस्लामी हिंद जैसे संगठनों ने इसे “राज्य मशीनरी का दुरुपयोग” करार दिया। समर्थकों का कहना है कि पैग़म्बर मोहम्मद से मोहब्बत का इज़हार कभी भी अपराध नहीं हो सकता।
लेकिन इस हिमायत के पीछे की सच्चाई कई परतों में छुपी है। पहली परत है मज़हबी जज़्बात, बरेलवी समाज हमेशा से पैग़म्बर मोहम्मद(स.अ.व.) की मोहब्बत को अपनी पहचान मानता आया है। इसलिए तौकीर रज़ा की गिरफ्तारी सीधे दिल पर चोट की तरह लगी। दूसरी परत है सामाजिक असुरक्षा, मुस्लिम नौजवान हर बार गिरफ्तारी और हिंसा के निशाने पर क्यों होते हैं, यह सवाल बार-बार गूँजता है। बरेली की गिरफ्तारी ने इस दर्द को और गहरा कर दिया।
तीसरी परत राजनीति की है। बेशक तौकीर रज़ा एक मौलाना हैं। लेकिन उन्होंने कभी कांग्रेस, कभी सपा और कभी बसपा के साथ मंच साझा किया है। उनकी गिरफ्तारी का फायदा उठाकर अब कई दल उन्हें “मुस्लिम लीडरशिप” का प्रतीक बनाना चाहते हैं। यह हिमायत उतनी ही सियासी है जितनी मज़हबी।
असल सवाल यही है, क्या यह हिमायत सिर्फ़ जज़्बाती नारेबाज़ी तक सीमित रहेगी, या फिर मुस्लिम समाज को असली मसलों पर भी एकजुट करेगी? तालीम, रोज़गार और कारोबारी तरक़्क़ी के लिए कभी इतनी ताक़त से आवाज़ क्यों नहीं उठती? क्यों नौजवान भीड़ का हिस्सा बनते हैं लेकिन स्कूल-कॉलेजों और रोज़गार के मैदान में पीछे रह जाते हैं?
तौकीर रज़ा की गिरफ्तारी आज सुर्ख़ियाँ हैं, लेकिन कल कोई और नौजवान जेल जाएगा। जब तक रहनुमाई अपने एजेंडे को मज़हबी नारों से हटाकर तालीम और तरक़्क़ी की तरफ़ नहीं ले जाएगी, तब तक मुस्लिम समाज अदालत-कचहरी और जेल के चक्कर काटता ही रहेगा।