गांधी जयंती -गांधी का सपना और आज की हकीकत

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(रईस खान)
आज गांधी जयंती है। हर साल की तरह देशभर में लोग बापू को याद करेंगे, जगह-जगह कार्यक्रम होंगे, खादी पहनने की बातें होंगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हम सिर्फ फूल-मालाओं से गांधी को श्रद्धांजलि देंगे, या उनकी सोच को सचमुच समझने की कोशिश करेंगे।

गांधी ने हमें तरक्क़ी का जो रास्ता दिखाया था, वह खादी और ग्रामोद्योग था। उनका मानना था कि जब तक गाँव मज़बूत नहीं होंगे, भारत की आत्मा अधूरी रहेगी। खादी उनके लिए सिर्फ कपड़ा नहीं थी, बल्कि गाँवों में रोज़गार का जरिया थी। वह चाहते थे कि किसान खेती के साथ-साथ घर-घर में छोटे-छोटे कुटीर उद्योग चलें। इससे गाँव आत्मनिर्भर बनें, पलायन रुके और हर हाथ को काम मिले।

आज़ादी के पचहत्तर साल बाद तस्वीर बदल चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था कहीं आगे निकल गई है, लेकिन खेती पर निर्भर लोगों की हालत अब भी कमजोर है। आज भी देश की ज़्यादातर आबादी गाँवों में रहती है, पर खेती से मिलने वाली आमदनी घटती जा रही है। किसान मेहनत करता है, लेकिन बाजार तक पहुँच और दाम का सही हिस्सा उसे नहीं मिल पाता। मौसम की मार, कर्ज़ का बोझ और बिखरे हुए खेत उसकी तरक्क़ी में बड़ी रुकावट हैं।

फिर भी तस्वीर पूरी तरह निराशाजनक नहीं है। खादी और ग्रामोद्योग आज भी लोगों को रोज़गार दे रहे हैं। सरकारी रिपोर्टें बताती हैं कि खादी का कारोबार पिछले कुछ सालों में बढ़ा है। डिज़ाइन और फैशन से जुड़कर खादी ने नई पहचान बनाई है। गाँव-गाँव में डिजिटल इंडिया ने भी असर दिखाया है, जिससे किसान और कारीगर अब ऑनलाइन अपने उत्पाद बेचने लगे हैं।

लेकिन असली चुनौती यही है कि गांधी के सपने को नए ज़माने से कैसे जोड़ा जाए। सिर्फ चरखा चलाने से गाँव की तक़दीर नहीं बदलेगी। खादी और कुटीर उद्योगों को ब्रांडिंग, ई-कॉमर्स और आधुनिक तकनीक से जोड़ना होगा। किसान की उपज को सीधे बाजार तक पहुँचाना होगा। अगर गाँवों में ही फल-सब्ज़ियों की प्रोसेसिंग, दूध का प्रसंस्करण, कपड़े की सिलाई या हस्तशिल्प का उत्पादन हो, तो किसान और कारीगर दोनों को ज्यादा फायदा मिलेगा।

गांधी का कहना था कि भारत की आत्मा उसके गाँवों में बसती है। आज भी यह बात सच है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब गाँवों को दुनिया से जोड़ना होगा। तभी किसान की मेहनत और खादी की महक सचमुच भारत की तरक्क़ी में चार चाँद लगाएगी।

इस गांधी जयंती पर बापू को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम सिर्फ खादी पहनकर नहीं, बल्कि खादी और किसान को मज़बूत बनाकर उनकी राह पर चलें। यही होगा असली ख़िराज़-ए-अक़ीदत।

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