(रईस खान)
हर इंसान की जिंदगी में कुछ पल ऐसे होते हैं जो वक़्त गुजर जाने के बाद भी दिल की किताब में ताज़ा रहते हैं। बांगरमऊ, उन्नाव के रामलीला मैदान का दशहरे का मेला, रावण का पुतला, गुब्बारों की उड़ान और दोस्तों के साथ बिताई वो रातें, ये सब सिर्फ त्यौहार नहीं थे, बल्कि हमारी बचपन की मासूमियत, दोस्ती और एकता की पहचान थे। आज जब समाज की फिज़ा बदल चुकी है और रिश्तों में दूरी आ गई है, तब ये यादें और भी कीमती लगती हैं।
गाँव से आठ किलोमीटर दूर कस्बे बांगरमऊ तक जाना अपने आप में एक रोमांच था। शाम ढलते ही लोग जुलूस की तरह कस्बे की ओर निकल पड़ते। मैदान में एक विशाल रावण का पुतला खड़ा रहता, जिसके भीतर बारूद और पटाखों से भरपूर तैयारी होती। मेरे खालू उस पुतले पर आतिशबाज़ी का काम करते थे। हम बच्चे बड़ी बेसब्री से उनके हाथों की कारीगरी देखते। जब पुतला दहन होता, तो धमाकों की गूँज से पूरा मैदान गूंज उठता।
सबसे जादुई नज़ारा होता उन काग़ज़ी गुब्बारों का। गुब्बारे में तेल में भीगा कपड़ा जलाया जाता और जैसे ही उसकी गर्मी भरती, गुब्बारा धीरे-धीरे ऊपर उठने लगता। पहले पास खड़े लोग तालियाँ बजाते, बच्चे उछल पड़ते, फिर वह गुब्बारा आसमान में रोशनी फैलाता हुआ उड़ जाता। हमें लगता जैसे हमारी खुशियाँ, हमारी दोस्ती, हमारे सपने सब उस गुब्बारे के साथ ऊँचाइयों में पहुँच रहे हों।
रातभर मेले की रौनक बनी रहती। कहीं झूले लगे होते, कहीं मिठाइयों की दुकानें। चारों ओर ठेलों की आवाज़ें, गुड़ की जलेबी की खुशबू और भीड़ की चहल-पहल। और उस सबसे अलग, मैदान में रामायण और महाभारत के खेल, राम का वनवास, सीता हरण, लक्ष्मण रेखा, सबकुछ हमें मंत्रमुग्ध कर देता। थकान, नींद और सफर की मशक्कत सब भूल जाते, बस उस मेले का मज़ा जीते।
उस दौर में दोस्ती भी अलग किस्म की थी। हम मुस्लिम बच्चे अपने हिंदू दोस्तों के साथ रामलीला का आनंद लेते, तो वही दोस्त ईद या मुहर्रम पर हमारे घर आ जाते। लेकिन सच यह भी है कि उन्हें इस्लाम के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। वे बस किताब में पढ़ी कुछ पंक्तियाँ जानते थे। वहीं हमें रामायण, भागवत कथा और महाभारत की कहानियाँ बहुत हद तक आती थीं।
आज हालात बदल गए हैं। सियासत ने दिलों में दरारें डाल दीं। अब त्योहारों में वह जोश और साझा खुशी नहीं रही। शुभकामनाएँ व्हाट्सएप और सोशल मीडिया पर मिल जाती हैं, मगर उसमें वो अपनापन, वो रौनक नहीं है। भीड़ तो आज भी जुटती है, पुतले आज भी जलते हैं, लेकिन दिलों में पहले जैसी नर्मी और दोस्ती नहीं बची।
फिर भी जब भी मैं उन दिनों को याद करता हूँ, तो लगता है कि हमारी दोस्ती और एकता का प्रतीक वही उड़ते गुब्बारे थे। आसमान में जाते हुए जैसे वो हमें सिखा रहे हों कि इंसानियत और मोहब्बत की रोशनी हमेशा ऊपर उठती है, चाहे हालात कैसे भी हों।
दशहरा, रामलीला, भागवत कथा और कंसलीला, ये सब महज़ धार्मिक आयोजन नहीं थे, बल्कि लोगों को जोड़ने वाले धागे थे। आज भले ही वक्त बदल गया हो, मगर उन उड़ते गुब्बारों की चमक मेरी यादों में हमेशा रोशन रहेगी।