(रईस खान)
इंदौर के सितलामाता बाज़ार में बीते दिनों जो घटनाक्रम हुआ, उसने पूरे देश का ध्यान खींचा है। भाजपा नेता और विधायक के बेटे के कहने पर दुकानदारों से साफ़ कहा गया कि वे अपने यहाँ से मुस्लिम सेल्समैन को हटाएँ और जिन मुस्लिम व्यापारियों ने दुकानें किराए पर ली हैं, वे उन्हें खाली करें। इस बयान के बाद कई कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया और कुछ दुकानदारों पर भी दबाव बना। स्वाभाविक है कि इससे समाज में बेचैनी और तनाव बढ़ा। मगर असल सवाल यह है कि क्या यह पहली बार हो रहा है?
हक़ीक़त यह है कि इंदौर की यह घटना भारत के अलग-अलग हिस्सों में पिछले कुछ सालों में सामने आई कई मिसालों की अगली कड़ी भर है।
कोरोना महामारी के दौरान उत्तर प्रदेश के कई शहरों में मुस्लिम फल-सब्ज़ी बेचने वालों के ख़िलाफ़ “कोरोना जिहाद” जैसी अफ़वाहें फैलाई गईं। लोगों से कहा गया कि उनसे सामान मत खरीदो। कई जगह उन पर हमला हुआ और उनकी रोज़ी-रोटी पर सीधा असर पड़ा। गुजरात में 2022 में कुछ नगरपालिकाओं ने ऐलान कर दिया कि हिंदू मोहल्लों में मुस्लिम दुकानदारों को जगह नहीं मिलेगी। यह मामला जब हाईकोर्ट पहुँचा तो अदालत ने साफ़ कर दिया कि ऐसा करना संविधान के खिलाफ़ है और किसी भी नागरिक को व्यापार के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
कर्नाटक में हिजाब विवाद के दौरान उडुपी और मंगलुरु के मंदिर मेलों में मुस्लिम व्यापारियों को स्टॉल लगाने से रोक दिया गया। तर्क यह दिया गया कि मंदिर ट्रस्ट अपनी मरज़ी से तय कर सकता है कि किसे जगह दे, मगर यह तर्क धार्मिक भेदभाव को छिपा नहीं सका। दिल्ली में 2022 में जहांगीरपुरी और सीलमपुर इलाक़ों में दंगों के बाद मुस्लिम दुकानों पर बुलडोज़र चलाया गया। आलोचकों ने इसे “टार्गेटेड ऐक्शन” कहा। महाराष्ट्र में भी कुछ सोसाइटी और संगठनों ने मुस्लिम कैटरिंग और हलाल मीट सप्लायर्स को बहिष्कार करने की कोशिश की, लेकिन प्रशासन ने साफ़ कहा कि ऐसा कोई प्रतिबंध वैध नहीं है। हरियाणा के नूंह और मेवात में हुई हिंसा के बाद मुस्लिम ट्रांसपोर्टरों और छोटे कारोबारियों को काम से दूर करने की कोशिशें हुईं।
इन तमाम घटनाओं में पैटर्न एक जैसा दिखाई देता है। वजहें अलग-अलग पेश की गईं, कहीं लव जिहाद का नाम लिया गया, कहीं कोरोना फैलाने का इल्ज़ाम लगाया गया, कहीं मंदिर परंपरा का हवाला दिया गया। लेकिन हर बार नतीजा यही रहा कि मज़हबी पहचान को आधार बनाकर मुसलमानों को कारोबार और रोज़गार से पीछे धकेलने की कोशिश हुई।
संविधान की नज़र से देखें तो यह सब न सिर्फ़ ग़ैरक़ानूनी है बल्कि सीधा-सीधा नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है। अनुच्छेद 19(1)(जी) हर नागरिक को व्यापार और व्यवसाय करने की आज़ादी देता है। अनुच्छेद 14 और 15 धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट बार-बार कह चुके हैं कि किसी पूरे समुदाय को व्यापार से रोकना असंवैधानिक है।
इंदौर की घटना इसलिए ख़ास है कि यहाँ व्यापारी संघ और राजनीतिक दबाव के ज़रिए यह रोक लागू करने की कोशिश की जा रही है। मगर इसके बीच यह भी सच है कि कई हिंदू व्यापारी खुद आगे आकर कह रहे हैं कि हमारे लिए धर्म मायने नहीं रखता, हम सालों से साथ काम कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। यह विरोध बताता है कि भारतीय समाज में साझी संस्कृति और भाईचारे की जड़ें अभी भी मज़बूत हैं।
यह समझना होगा कि ऐसे कदम सिर्फ़ एक मज़हबी अल्पसंख्यक पर असर नहीं डालते बल्कि पूरे देश की साझा अर्थव्यवस्था और समाज की बुनियाद को हिला देते हैं। बाज़ार हमेशा मेल-जोल, विश्वास और भरोसे पर चलते हैं। अगर धर्म और पहचान को इसमें घुसा दिया जाएगा तो सबसे बड़ा नुकसान रोज़गार और व्यापार को ही होगा।
इंदौर की पाबंदी इसलिए कोई अलग-थलग घटना नहीं है। यह उसी सिलसिले की नई कड़ी है जो पिछले कुछ सालों में देशभर में बार-बार देखने को मिला है। इस सिलसिले को अगर समय रहते नहीं रोका गया तो यह सिर्फ़ एक समुदाय नहीं बल्कि पूरे भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और आर्थिक भाईचारे पर गहरा असर डालेगा। यही वह बिंदु है जिस पर समाज और सत्ता दोनों को गंभीरता से सोचना होगा।

