संवैधानिक पद और असंवैधानिक भाषा

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(रईस खान)
बरेली की हिंसा के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान, “गर्मी निकाल देंगे, जहन्नुम पहुँचा देंगे”, अब सियासी और संवैधानिक बहस का विषय बन गया है। पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने इस पर राज्यपाल को पत्र लिखकर माँग की है कि मुख्यमंत्री को पद से हटाया जाए। उनका तर्क साफ है, जो व्यक्ति संवैधानिक पद पर रहते हुए असंवैधानिक भाषा बोले, उसे उस पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं।

दरअसल, यह बहस किसी एक बयान या किसी एक नेता तक सीमित नहीं है। यह सवाल उस पूरे लोकतांत्रिक ढाँचे पर है, जहाँ सत्ता की कुर्सी पर बैठा शख्स कानून और संविधान का संरक्षक भी होता है। जब वही व्यक्ति भीड़ की तरह बोलने लगे, धमकी और डर का लहजा अपनाने लगे, तो यह न सिर्फ लोकतांत्रिक मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ाता है, बल्कि संवैधानिक संस्थाओं की साख को भी चोट पहुँचाता है।

भारत का संविधान मुख्यमंत्री को बेहद मज़बूत अधिकार देता है, लेकिन उसी संविधान ने यह उम्मीद भी बाँधी है कि पद पर बैठे लोग भाषा और व्यवहार से मिसाल पेश करेंगे। “जहन्नुम” जैसे शब्द सिर्फ़ धार्मिक या भावनात्मक चोट नहीं करते, बल्कि शासन और न्याय के ताने-बाने को भी कमजोर करते हैं। यह संदेश जाता है कि सत्ता की भाषा कानून से ऊपर है।

अमिताभ ठाकुर का पत्र कानूनी दृष्टि से भले ही तुरंत असर न डाले, क्योंकि राज्यपाल ऐसे मामलों में प्रायः निष्क्रिय रहते हैं। लेकिन यह पत्र एक आईना है, जिसमें हम सबको देखना होगा कि हम कैसा लोकतंत्र गढ़ रहे हैं। क्या लोकतंत्र गालियों और धमकियों से चलेगा या संविधान और संवाद से?

जनता को यह तय करना होगा कि वे किस तरह के नेता चाहते हैं, भीड़ की तरह गरजने वाले, या संविधान की तरह संतुलित और संयमित। अगर संवैधानिक पद असंवैधानिक भाषा के बोझ तले दबे रहेंगे, तो सबसे बड़ा नुकसान लोकतंत्र का ही होगा।

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