(रईस खान)
हजरत अब्दुल कादिर जीलानी रह. ने अपने जीवन में न केवल इल्म और तालीम को सर्वोपरि रखा, बल्कि रोज़मर्रा की मेहनत और छोटे-छोटे तिजारत के कामों में भी ईमानदारी और संयम बनाए रखा। उनका सादा जीवन और रूहानी अभ्यास हमें यह सिखाता है कि मेहनत और आध्यात्मिकता साथ-साथ चल सकती हैं। हर किताब, हर काम और हर मज़दूरी में उनका मकसद था , काम करो, सीखो और खुदा का ख्याल रखो।
बहुत समय पहले की बात है, जब बगदाद की गलियों में हल्की हवा चल रही थी और मस्जिदों की अज़ान हर कोने तक पहुँच रही थीं, उसी शहर में एक युवा पीर अपनी रोज़मर्रा की मेहनत में व्यस्त था। लोग उसे सिर्फ एक आलिम समझते थे, लेकिन वे नहीं जानते थे कि उसके हाथों में कभी किताबें, कभी कलम और कभी छोटे-छोटे तिजारत के सामान भी रहते थे।
हजरत अब्दुल कादिर जीलानी रह. अपने जीवन के शुरुआती दिनों में किसी बड़े आलीशान घर के मालिक नहीं थे। वह खुद अपनी रोज़ी-रोटी के लिए मेहनत करते थे। कभी किताबें बेचते, कभी मस्जिद के लिए साधारण सामान जुटाते और कभी अपने मुरीदों के साथ बैठकर खुद ही काम निपटाते। हर काम में उनका अंदाज एक सा था, ईमानदारी और लगन। उनका मानना था कि इंसान को अपने हाथ की कमाई की कदर करनी चाहिए।
तिजारत उनके लिए सिर्फ़ पैसे कमाने का जरिया नहीं था। यह रोज़ी-रोटी और तालीम के कामों के लिए साधन जुटाने का तरीका था। हजरत जीलानी रह० सादा जीवन जीते, ज़रूरत से ज्यादा नहीं चाहते थे और हर काम में ईमानदारी रखते थे।
लेकिन उनका असली कमाल तालीम में था। सुबह से शाम तक वह किताबों में डूबे रहते, हदीस, कुरान और तसव्वुफ़ पढ़ते। मुरीदों को न केवल इल्म देते, बल्कि यह भी सिखाते कि रोज़मर्रा की मेहनत और रूहानी कसरत में तालमेल होना चाहिए। उन्होंने अपने जीवन से यह दिखाया कि आध्यात्मिक गुरु होने का मतलब यह नहीं कि दुनिया के कामों से दूर रहें। इंसान को अपनी मेहनत से खुदमुख्तार बनना चाहिए और यही असली तालीम है।
आज भी उनकी यह कहानी हमें सिखाती है कि इल्म और मेहनत, रूहानियत और तिजारत साथ-साथ चल सकती हैं, अगर इंसान ईमानदार और संतुलित जीवन जीने का इरादा रखे।