(रईस खान)
कुरआन में अल्लाह तआला का पहला हुक्म यही है, “इक़रा बिस्मि रब्बिकल्लज़ी खलक़”, यानी “पढ़ो अपने उस रब के नाम से जिसने पैदा किया।” यह वही लफ़्ज़ हैं जिन्होंने इंसानियत को अंधेरे से उजाले की तरफ़ मोड़ दिया। इस आयत ने बता दिया कि इस्लाम की नींव ही इल्म पर रखी गई है।
क़ुरान और सुन्नत में इल्म को सिर्फ़ पढ़ाई या जानकारी के रूप में नहीं, बल्कि एक इबादत और ज़िम्मेदारी के रूप में पेश किया गया है। रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया, “इल्म हासिल करना हर मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ है।” यानी यह किसी तबके या वर्ग तक सीमित नहीं, बल्कि हर इंसान का अधिकार और कर्तव्य दोनों है।
क़ुरान हमें सिखाता है कि इल्म हासिल करना एक निरंतर सफर है, इसका कोई अंत नहीं। अल्लाह तआला फ़रमाता है, “कहो, ऐ मेरे रब! मेरे इल्म में इज़ाफ़ा फरमा।” इस दुआ से हमें यह एहसास होता है कि सीखने की तलब हमेशा ज़िंदा रहनी चाहिए। जो सीखना छोड़ देता है, वह दरअसल ज़िंदगी से ठहर जाता है।
इल्म का असल मक़सद सिर्फ़ अक़्ल या याददाश्त का इज़ाफ़ा नहीं, बल्कि इंसान और समाज की इस्लाह है। क़ुरान पूछता है, “क्या वे लोग बराबर हो सकते हैं जो जानते हैं और जो नहीं जानते?” इस सवाल में एक पूरा फ़लसफ़ा छिपा है, इल्म इंसान को ज़िम्मेदार बनाता है, उसे इंसाफ़, रहम और अख़लाक़ की तरफ़ ले जाता है।
क़ुरान में सिखाने और समझाने का तरीका भी बड़ा खूबसूरत अंदाज़ में बताया गया है। “अपने रब के रास्ते की तरफ़ हिकमत, नसीहत और अच्छे लहजे के साथ बुलाओ।” यह तालीम का बेहतरीन उसूल है, यानी समझदारी से सिखाओ, मोहब्बत से समझाओ, और बात में नरमी रखो। किसी पर थोपो नहीं, बल्कि उसके दिल में जगह बनाओ।
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और हज़रत खिज़्र अलैहिस्सलाम के वाक़िए से भी क़ुरान हमें इल्म का अदब सिखाता है। उसमें बताया गया कि सीखने वाले को सब्र और विनम्रता से काम लेना चाहिए, और सिखाने वाले को हिकमत और रहमत से पेश आना चाहिए। यह रिश्ता किसी हुक्मरान और मातहत का नहीं, बल्कि दो खोजी आत्माओं का होता है जो सच्चाई की तलाश में हैं।
क़ुरान में इल्म की बराबरी की बात करते हुए यह भी कहा गया कि “अल्लाह उन लोगों के दर्जे बुलंद करेगा जो ईमान लाए और जिन्हें इल्म दिया गया।” यहां किसी मर्द या औरत का ज़िक्र अलग से नहीं, बल्कि दोनों को बराबर दर्जा दिया गया है। इस्लाम में शिक्षा के दरवाज़े सभी के लिए खुले हैं, उम्र, लिंग, या दर्जे की कोई पाबंदी नहीं है।
आज जब दुनिया तेज़ी से बदल रही है, तो ज़रूरत है कि हम क़ुरान के इस तालीमी पैग़ाम को फिर से ज़िंदा करें और तेजी से फैलाएं। इल्म को इबादत की नीयत से हासिल करें, सिर्फ़ नौकरी या शोहरत के लिए नहीं, बल्कि इंसानियत और समाज की बेहतरी के लिए। क्योंकि सच्चा इल्म वही है जो दिल को रोशन करे, इंसाफ़ सिखाए, और अमल में झलके।
क़ुरान की नज़र में इल्म सिर्फ़ रोशनी नहीं, बल्कि वह ज़रिया है जो इंसान को इंसान बनाता है। और जब इल्म इबादत बन जाता है, तो ज़िंदगी खुद एक दुआ बन जाती है।