(रईस खान)
मुंबई के वर्ली में तीन रोज़ तक चलने वाला महाराष्ट्र स्टेट उर्दू एकेडमी का गोल्डन जुबली जश्न इस वक़्त सुर्ख़ियों में है। जहाँ एक तरफ़ मुशायरा, नज़्म, साहित्यिक इज्लास और एहतरामी तक़रीबात की रौनक़ थी, वहीं दूसरी तरफ़ “दस करोड़ के बजट” का मुद्दा एक बड़ा सियासी बहस का मुद्दा बन चुका है।
जश्न का असल मक़सद
एकेडमी ने अपने 50 साल पूरे होने पर “उर्दू अदब की ख़िदमत और नई नस्ल तक उसका पैग़ाम पहुँचाने” का एलान किया था। तीन दिन तक मुशायरे, कव्वाली, किताब इज़रा और अदीबों की तक़रीरें होती रहीं। मंत्री माणिकराव कोकाटे और कई अदीब व शायर इस जश्न में शरीक हुए। सरकार की जानिब से माइनॉरिटी डेवलपमेंट डिपार्टमेंट ने इसकी सरपरस्ती की।
बजट का अनसुलझा सवाल
असल विवाद तब शुरू हुआ जब सोशल मीडिया पर यह दावा फैल गया कि इस जश्न पर ₹10 करोड़ का इम्तियाज़ी बजट रखा गया है। कुछ पोस्ट्स ने तो यह तक लिखा कि “किसी इवेंट कम्पनी को दस करोड़ का ठेका दिया गया”, हालाँकि, अब तक कोई आधिकारिक जीआर सामने नहीं आया जो इस रकम की तस्दीक़ करता हो। दूसरी तरफ़, टाइम्स ऑफ़ इंडिया और कुछ दूसरे अख़बारों ने रिपोर्ट किया कि, “हुकूमत ने सिर्फ़ ₹1.2 करोड़ की ग्रांट दी थी और ₹11.76 लाख इंतज़ामी ख़र्च के लिए।” यानी असली तसवीर धुंधली है, एक तरफ़ सोशल मीडिया का,इल्ज़ाम, दूसरी तरफ़ अख़बारों का हक़ीक़तन कम आँकड़ा।
सियासत और अदब का टकराव
समाजवादी पार्टी के एमएलए रईस शेख़ ने बयान दिया कि, “अगर एकेडमी को सिर्फ़ डेढ़ करोड़ मिले हैं, तो दस करोड़ का शोर कहाँ से उठा? क्या उर्दू के नाम पर कोई तिजारत चल रही है?” वहीं कुछ शायरों ने भी कहा कि उर्दू अदब के नाम पर बड़े-बड़े मंच सजाना ठीक है,मगर उस अदब की जड़, किताबें, तालीम और तरबियत, पर असली निवेश नहीं हो रहा।
उर्दू की इज़्ज़त और अवाम का एहतिसाब
जश्न में हज़ारों लोग पहुँचे, मुशायरा हुआ, शायरों ने तालियाँ बटोरीं, लेकिन बाहर सोशल मीडिया पर सवाल उठता रहा, क्या यह वाक़ई “उर्दू का इदारा” का जश्न था या “इवेंट कम्पनी” का शो? “अदब की हिफ़ाज़त सिर्फ़ पब्लिसिटी से नहीं, तालीम और तहकीक़ से होती है”, यह लफ़्ज़ कई सीनियर उर्दू अदबकारों ने भी कहे।
हक़ीक़त क्या है?
अब तक सरकारी पोर्टल पर सिर्फ़ वही जीआर दर्ज है जिसमें ₹1.2 करोड़ की तफ़सील है। अगर ₹10 करोड़ का दूसरा बजट वाक़ई पास हुआ है, तो उसका दस्तावेज़ अब तक सार्वजनिक नहीं। मालूमात के बिना हंगामा, और हंगामे में उर्दू की तसवीर धुँधली।
उर्दू एकेडमी का गोल्डन जुबली एक अहम और ऐतिहासिक मोड़ था। मगर पारदर्शिता की कमी ने इसे सियासी बहस बना दिया। उर्दू के हक़ में जो बजट आता है, उसे अदब, तालीम और नशर-ओ-इशाअत की तरफ़ मोड़ना चाहिए वरना “जश्न” के शोर में “ज़बान” की सदा खो जाएगी। “ज़बान का तक़द्दुस, शेर की नर्मी और सच की तल्ख़ी, यही उर्दू की रूह है। बजट की गिनती से ज़्यादा ज़रूरी है कि उर्दू का नाम सियासी हंगामे में ना आए।