(रईस खान)
रामपुर की ख़ामोशी में जब अखिलेश यादव की गाड़ी ने दस्तक दी, तो हवा में एक पुराना एहसास लौट आया, जैसे सियासत का कोई अधूरा मक़सद फिर से मुकम्मल होने चला हो। दो साल की तन्हाई के बाद, आज़म ख़ान और अखिलेश यादव आमने-सामने थे।यह सिर्फ एक मुलाक़ात नहीं थी, यह सियासी इबारत का नया पैराग्राफ़ था।
अज़मत और अदावत के बीच आज़म के तेवर
आज़म ख़ान अब भी वही हैं, लबों पर तल्ख़ी, लहजे में अदब, और बात में वह पुराना आत्मविश्वास। उन्होंने साफ़ कहा, “मैं अब सिर्फ उन्हीं से मिलूंगा, जिनसे इज़्ज़त महसूस होती है।” यह जुमला किसी नाराज़ लीडर का नहीं, बल्कि एक ऐसे सियासतदान का ऐलान था जो अपनी वक़ार और सियासी अस्मिता पर कोई समझौता नहीं करता।
रामपुर की गलियों में लोग कहते हैं, आज़म का दर्द भी सियासी है और उनका सब्र भी।उनके मुक़द्दमे, उनका सियासी हाशियाकरण, और जेल की तन्हाई, सब कुछ मिलकर उन्हें एक मज़लूम लीडर की शक्ल में गढ़ चुके हैं। और यही छवि, आज भी सपा के मुस्लिम वोट बैंक में उनकी पकड़ को अटूट बनाती है।
अखिलेश की पहल, सियासत की सूफ़ियाना चाल
अखिलेश यादव की यह यात्रा, दरअस्ल एक सियासी सुलहनामा थी, इख़लास और इम्तिहान के बीच की राह। उन्होंने आज़म के घर पहुँचकर सिर्फ पुराने गिले नहीं मिटाए, बल्कि एक रूहानी संदेश भी दिया, कि समाजवादी आंदोलन में अब भी वफ़ा की गुंजाइश बाक़ी है।मुलाक़ात के बाद अखिलेश ने कहा, “आज़म साहब हमारी पार्टी की धड़कन हैं, उन पर लगे मुक़दमे झूठे हैं, और सपा की हुकूमत आने पर उन्हें वापस लिया जाएगा।”
यह बयान सिर्फ राहत नहीं था, बल्कि एक राजनीतिक इशारा भी, कि पार्टी की जड़ें अब भी पुराने वफ़ादारों से जुड़ी हैं।
सियासत के मंजरनामे में नई ज़मीन की तलाश
इस मुलाक़ात ने यूपी की सियासत में कई सवाल छोड़ दिए हैं, क्या यह मुस्लिम लीडरशिप का पुनर्जागरण है? या फिर 2027 की सियासी बस की मरम्मत शुरू हो चुकी है?
रामपुर की दीवारों पर अब जो फुसफुसाहटें हैं, उनमें एक बात साफ़ है, अखिलेश को समझ आ गया है कि बिना आज़म की “दुआ” के पश्चिमी यूपी की सियासी सल्तनत अधूरी है। और आज़म ख़ान को भी एहसास है कि अपनी तहरीक को ज़िंदा रखने के लिए अखिलेश का साया ज़रूरी है।
इम्तिहान अब भी बाकी है
यह एक इत्तिहाद की शुरुआत हो सकती है, लेकिन इसकी राह आसान नहीं। आज़म खान को अब पार्टी के नए दौर में अपनी जगह साबित करनी होगी, और अखिलेश को साबित करना होगा कि वो सिर्फ एक वारिस नहीं, बल्कि एक रहनुमा हैं। क्योंकि सियासत की बिसात पर, वफ़ा और वक़्त दोनों बदलते हैं, और जो वक़्त को न पहचान सके, वो बस याद बनकर रह जाता है।
रामपुर से उठी यह मुलाक़ात अगर रंजिशों का मरहम बन पाई, तो सपा की सियासत में एक नई रूह दौड़ सकती है। वरना, यह भी वही कहानी होगी, जहाँ अहंकार के साये में एतबार की रौशनी फिर धुंधला जाएगी।