कारोबार — भदोही से कज़ाकस्तान तक : कालीनों का सफर और हुनरमंदों की संघर्ष भरी दुनिया

Date:

(रईस खान)

भदोही की संकरी गलियों में जब करघा झनझनाता है, तो उसकी आवाज़ हजारों किलोमीटर दूर कज़ाकस्तान की किसी भव्य मस्जिद तक गूंज जाती है। और फिर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हो जाते हैं। हाल ही में अल्माटी और नूर-सुल्तान, अब अस्ताना की विशाल मस्जिदों में जो नर्म, खूबसूरत, और जटिल पैटर्न वाले कालीन बिछे हैं, वे किसी विदेशी फैक्ट्री में नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के बुनकरों के हाथों बने हैं।

मिट्टी से निकलकर मस्जिद तक

कज़ाकस्तान की मस्जिदों के लिए बनाए गए ये कालीन सिर्फ सजावट नहीं, बल्कि भारतीय कारीगरों के सूक्ष्म कला कौशल का प्रतीक हैं। महीनों तक बुनाई, रंगाई और डिज़ाइनिंग के बाद ये कालीन जब तैयार हुए, तो उन्होंने भदोही की कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान दी। भदोही अब सिर्फ भारत का “कार्पेट हब” नहीं रहा, यह वैश्विक मस्जिदों, महलों और लक्ज़री होटलों का गुप्त निर्माता बन चुका है।

लेकिन इन कालीनों के नीचे दबा सच

इन चमकदार निर्यातों के पीछे एक सच्चाई छिपी है, भदोही का बुनकर आज भी संघर्ष में जी रहा है। सुबह से शाम तक करघे पर झुके हाथ, आंखों में धागों का जाल और दिल में उम्मीद का सपना, यही उनकी दिनचर्या है। “हमारे बनाए कालीन विदेशों में लाखों में बिकते हैं, लेकिन हमें तो बस मेहनताना ही मिलता है,” कहते हैं रईस अहमद, जो पिछले तीस साल से ऊनी कालीन बुन रहे हैं।

अमेरिकी टैरिफ और वैश्विक बाज़ार का झटका

भदोही के कालीन उद्योग का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका और यूरोप में निर्यात पर निर्भर है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अमेरिकी टैरिफ नीति और ट्रेड बैरियर्स ने इन बुनकरों के लिए संकट खड़ा कर दिया है। टैरिफ बढ़ने से भारतीय कालीन महंगे पड़ने लगे, और विदेशी खरीदारों ने तुर्की, ईरान या बांग्लादेश जैसे देशों की ओर रुख कर लिया। नतीजा, भदोही की कई छोटी यूनिटें बंद हो गईं, और हजारों बुनकर बेरोजगार हो गए।

बाजार और बिचौलियों की भूलभुलैया

भदोही के बुनकरों की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे सीधे वैश्विक बाजार से नहीं जुड़ पाते। बिचौलियों की लंबी श्रृंखला में असली मुनाफा बीच में ही कहीं खो जाता है। एक बुनकर औसतन ₹250–₹400 प्रतिदिन कमाता है, जबकि उसका बनाया कालीन विदेशों में ₹50,000 से ₹1 लाख तक बिकता है।
कला अमूल्य है, लेकिन कलाकार अब भी सस्ता है।

नई उम्मीदें, तकनीक और संगठन

अब कुछ युवा डिज़ाइनर और उद्यमी इस कला को डिजिटल युग से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
ऑनलाइन मार्केटप्लेस, ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म, और सरकारी निर्यात प्रोत्साहन योजनाएं भदोही की कारीगरी को सीधा दुनिया के सामने लाने का मौका दे रही हैं। “अब हम अपने डिज़ाइन इंस्टाग्राम और एटसी पर बेचते हैं, सीधे खरीदारों तक पहुंचते हैं,” बताती हैं 26 वर्षीय आयशा फातिमा, जिन्होंने अपने पिता की परंपरा को नए जमाने के बिज़नेस में बदला है।

कालीनों के नीचे बिछा भारत

भदोही का हर कालीन अपने भीतर भारत की कहानी समेटे है, गांव की मिट्टी, कारीगर की मेहनत, और उस मुस्कान की झलक जो अपने हुनर को दुनिया तक पहुंचते देखता है।
कज़ाकस्तान की मस्जिदों की ठंडी संगमरमर ज़मीन पर जब नमाज़ी सजदे में झुकते हैं, तो उनके नीचे बिछा हर धागा भारत की एक अनकही दुआ की तरह है, एक बुनकर की खामोश प्रार्थना, जो चाहता है कि उसका हुनर कभी भूखा न रहे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Share post:

Subscribe

spot_img

पॉपुलर

और देखे
और देखे

तारिक हलाल मीट्स: हलाल मीट की दुनिया में एक नया चैप्टर 

लंदन के बेथनल ग्रीन की हलचल भरी सड़कों पर,...

गुफ्तगू-2025 — रियल एस्टेट की नई राहें तलाशती लखनऊ की अहम बैठक

(रईस खान) लखनऊ के हरदोई रोड स्थित अज़्म इंटरप्राइजेज कार्यालय...

पीएमओ में हंगामा: मोदी के करीबी हीरेन जोशी ‘गायब’, प्रसार भारती चेयरमैन सहगल ने दिया इस्तीफा

(रईस खान) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय (पीएमओ) में अचानक...