भारत–अफगान रिश्ते और भारतीय मुसलमान

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(रईस खान)
अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी का भारत दौरा हाल के दिनों में बहुत चर्चा में है। यह दौरा इसलिए अहम है क्योंकि यह तालिबान सरकार के किसी बड़े नेता का भारत का पहला दौरा है। अब सवाल यह उठता है कि इससे भारत के मुसलमानों पर क्या असर पड़ सकता है?

बातचीत की नई शुरुआत

पिछले कुछ सालों से अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार है, और भारत ने उनके साथ बहुत सीमित बातचीत रखी थी। लेकिन अब मुत्ताकी का भारत आना इस बात का संकेत है कि भारत अफगानिस्तान से अपने पुराने रिश्ते फिर से जोड़ना चाहता है। भारत के मुसलमानों के लिए यह एक अच्छा संकेत माना जा सकता है, इससे यह लगता है कि भारत किसी धर्म या सोच से दूरी नहीं बनाना चाहता, बल्कि सबके साथ बातचीत और रिश्ते रखना चाहता है।

मुस्लिम देशों से बेहतर रिश्ते

भारत अगर अफगानिस्तान और दूसरे इस्लामी देशों से अच्छे संबंध बनाता है, तो इससे भारत के मुसलमानों को भी गर्व महसूस होता है कि उनका देश मुस्लिम दुनिया से भी मजबूत रिश्ते रख रहा है। इसके अलावा, मुत्ताकी की यात्रा के दौरान अगर व्यापार, शिक्षा या छात्र एक्सचेंज जैसी बातें आगे बढ़ती हैं, तो यह भारत के मुस्लिम कारोबारियों और छात्रों के लिए नए अवसर ला सकती हैं।

कुछ चिंताएँ भी

हालांकि, इस दौरे को लेकर कुछ चिंताएँ भी हैं।तालिबान सरकार पर महिलाओं की शिक्षा रोकने और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप हैं।भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसे शासन से रिश्ते रखना थोड़ा असहज हो सकता है।बहुत से भारतीय मुसलमान, खासकर शिक्षित और प्रगतिशील लोग, यह सोच सकते हैं कि भारत को तालिबान के साथ दूरी बनाए रखनी चाहिए जब तक वह अपने रवैये में सुधार न करे।

राजनीति और समाज पर असर

इस दौरे को लेकर भारत की राजनीति में भी बहस हो सकती है। कुछ लोग कहेंगे कि भारत सरकार “तालिबान को बढ़ावा दे रही है”, तो कुछ इसे “कूटनीतिक समझदारी” मानेंगे। ऐसे माहौल में भारतीय मुसलमानों के लिए यह ज़रूरी है कि वे इस मुद्दे को संतुलन के साथ देखें, न तालिबान की नीतियों का समर्थन करें, न ही भारत की पहल को गलत समझें।

कुल मिलाकर, यह दौरा भारत और अफगानिस्तान के रिश्तों में एक नई शुरुआत हो सकता है।अगर भारत इस मौके का इस्तेमाल मानवीय मदद, शिक्षा और शांति के लिए करता है, तो यह भारतीय मुसलमानों के लिए गर्व की बात होगी। लेकिन अगर यह रिश्ता सिर्फ राजनीतिक दिखावे तक सीमित रह गया, तो इसका असर उम्मीदों पर पड़ सकता है।आख़िर में सवाल वही है, क्या भारत इस्लामी दुनिया से दोस्ती का पुल बनाएगा या दूर से तमाशा देखता रहेगा? इसका जवाब आने वाले महीनों में भारत की नीतियाँ खुद दे देंगी।

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