(रईस खान)
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, जिनका जन्म 1238 ईस्वी में हुआ, भारत के सबसे बड़े सूफी संतों में से एक थे। उनका जीवन पूरी तरह इबादत, सेवा-ए-ख़ल्क़ और इश्क़-ए-इलाही में बीता। वे सिर्फ आध्यात्मिक मार्गदर्शक नहीं थे, बल्कि अपने मुरीदों और आम लोगों को तालीम देने वाले शिक्षक भी थे।
उनकी तालीमी शैली बहुत ही खास थी। वे किताबों या पाठ्यक्रमों तक सीमित शिक्षा के पक्षधर नहीं थे। उनके लिए असली तालीम वही थी जो दिल में उतरती और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अमल बनती। उनके दर पर आने वाला हर शख़्स, अमीर या गरीब, सीखता था कि इंसानियत और ईश्वर प्रेम का असली मतलब क्या है।
हज़रत औलिया अपने मुरीदों को व्यक्तिगत मार्गदर्शन देते थे। वे हर शिष्य की समझ और स्वभाव के अनुसार उसे सीखाते थे। उनका मानना था कि असली इल्म वही है जो दिल को साफ़ करे, दूसरों के लिए दया और मोहब्बत पैदा करे और इंसान को खुदा के करीब ले जाए।
उनकी खानक़ाह सिर्फ इबादत का स्थल नहीं थी, बल्कि एक खुला शिक्षण केंद्र था। यहां मुरीदों को ज़िक्र , फ़िक्र, ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ और इश्क़-ए-इलाही सिखाया जाता था। उनके प्रवचन और कहानियां, जिन्हें उनके शिष्य अमीर ख़ुसरो ने संकलित किया, आज भी लोगों के लिए मार्गदर्शक हैं।
उनके ज़माने में दिल्ली और अन्य शहरों में कई मदरसे और दारुल-उलूम स्थापित थे, लेकिन निज़ामुद्दीन औलिया की खानक़ाह ने शिक्षा की एक अलग और असरदार परंपरा कायम की। उनका मकसद केवल विद्या देना नहीं था, बल्कि समाज में मोहब्बत, भाईचारा और इंसानियत फैलाना था। उनके दर पर आने वाले लोग जाति, धर्म या अमीर-गरीब के भेद भूलकर एक-दूसरे से जुड़ते थे।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का तरीका-ए-तालीम आज भी प्रेरणा का स्रोत है। उनके अनुसार तालीम का असली मकसद दिलों को जोड़ना, आत्मिक उन्नति और समाज में प्यार व शांति कायम करना था। यही वजह है कि उनका नाम सूफी परंपरा में ही नहीं, बल्कि पूरे समाज में आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है।