(शकील रशीद)
पचास साल पहले उर्दू के कुछ मशहूर अदीबों ने,जिनमें अली सरदार जाफ़री, कृष्ण चंदर, इस्मत चुग़ताई, सत्य माधव राव पगड़ी आदि शामिल थे, महाराष्ट्र सरकार को राज़ी करके “महाराष्ट्र उर्दू अकादमी” की नींव रखवाई थी। अब इसे “महाराष्ट्र साहित्य उर्दू अकादमी” कहा जाता है। हाल ही में जब इस अकादमी के पचास साल पूरे हुए, तो एक “इवेंट” का आयोजन किया गया। यह अकादमी का ऐसा पहला जश्न था जिसकी बागडोर एक इवेंट कंपनी को दे दी गई थी, और उसने इस पूरे जश्न को एक अदबी महफ़िल के बजाय फ़िल्मी तमाशे में बदल दिया।
हैरत की बात यह नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ, बल्कि यह है कि अदबी महफ़िल को फ़िल्मी तमाशे में बदल दिए जाने के बावजूद उर्दू के अदीबों, शायरों, पत्रकारों और “उर्दू-नवाज़ों” को इस इवेंट में जाने और कुछ हज़ार रुपये का इनाम लेने में कोई शर्म महसूस नहीं हुई!
कोई यह सवाल कर सकता है, “शर्म की क्या बात है, अवॉर्ड पाने वाले तो लेने ही जाएंगे ना?” बिलकुल जा सकते हैं, कोई नहीं रोकता, लेकिन जब उनके लिए ज़िल्लत का पूरा इंतज़ाम किया गया हो, तब उन्हें स्वाभिमानका ध्यान रखना चाहिए और ऐसे हर कार्यक्रम से दूर रहना चाहिए।
इस प्रोग्राम में जावेद अख्तर मेहमान के तौर पर आए थे। एक शायर और लेखक के रूप में उनका बड़ा नाम है, और उन्होंने कई मशहूर फ़िल्में लिखी हैं। मान लिया कि उन्हें बुलाना और लाखों रुपये देना ठीक था, लेकिन शेखर सुमन, अली असगर, सचिन पिलगांवकर, अनूप जलोटा आदि को आगे रखकर पूरे “जश्न” को तमाशा बनाने का क्या तुक था?
पता है अनूप जलोटा को इस प्रोग्राम के लिए कितने रुपये दिए गए? 25 लाख रुपये! बाकी जो फ़िल्मी चेहरे थे उन्हें भी 10 से 15 लाख रुपये तक मिले।
और जिन्हें अवॉर्ड दिए गए, यानी पत्रकारों, अदीबों, शायरों और टीचरों को, उन्हें कितने रुपये मिले? बस 15 हज़ार से लेकर 1 लाख रुपये तक!
शायद उर्दू वाले खुद अपनी औकात जानते हैं, उन्हें लगता है कि वे बस 15–20 हज़ार के ही हक़दार हैं अफ़सोस की बात तो यह है कि फ़ैशन शो और डांस प्रोग्रामों पर भी उर्दू वालों को कोई शर्म नहीं आई! ख़ैर, शर्म आए भी क्यों, उन्होंने बेशर्मी का लिबास जो ओढ़ रखा है! उन्हें अपनी बेइज़्ज़ती की कोई परवाह नहीं, बस किसी तरह स्टेज पर पहुँच जाएँ, तस्वीर खिंचवा लें और फिर सबको दिखाएँ कि “देखो हमें अवॉर्ड मिला है!”
पूरा प्रोग्राम बदइंतज़ामी का शिकार रहा, ट्रॉफियाँ घटिया थीं, पानी तक की कमी थी, और बहुत सी कुर्सियाँ खाली रहीं।
अब यह कहा जा रहा है कि “क्या करें, महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी में तो बस एक ही व्यक्ति है, सैयद शुऐब हाशमी।”
लेकिन लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि यह प्रोग्राम अल्पसंख्यक मंत्रालय का था, जिसके पास एक बड़ा अमला है, जिससे काम लिया जा सकता था।
ख़ैर, जब 10 करोड़ रुपये उड़ाना ही मक़सद हो, तो फिर क्या इंतज़ाम और क्या अनुशासन!
अदबी महफ़िल को फ़िल्मी तमाशा बनाने में अकादमी और मंत्रालय दोनों इतने मशगूल रहे कि उन्हें यह तक एहसास नहीं हुआ कि उर्दू अकादमी की स्थापना में अहम भूमिका निभाने वाले हसन कमाल और डॉ. अब्दुस्सत्तार दलवी अब भी ज़िंदा हैं, उन्हें ही मंच पर बुला लिया जाता और उनकी इज़्ज़त-अफ़ज़ाई कर दी जाती! अफ़सोस, सद अफ़सोस!
चलते-चलते,
अकादमी के जश्न के इश्तिहार से उर्दू अख़बारों को पूरी तरह वंचित रखा गया, बल्कि किसी भी भाषा के अख़बार को विज्ञापन नहीं दिया गया। क्यों? क्योंकि मुख्यमंत्री ने अकादमी और मंत्रालय को विज्ञापन देने से मना कर दिया था। क्यों? क्योंकि अब उर्दू ज़ुबान और उसके अख़बारों की न तो सरकार की नज़र में कोई अहमियत रही, जैसे भाजपा की नज़र में मुस्लिम वोटों की कोई अहमियत नहीं रही।
क्या उर्दू वाले अब जागेंगे, और अपनी बेइज़्ज़ती का मातम करेंगे?