(रईस खान)
उत्तर प्रदेश के बागपत में हुए तिहरे हत्याकांड ने पूरे प्रदेश को झकझोर दिया है। घटना में शामिल आरोपियों में मदरसे से जुड़े नाबालिग बच्चों के नाम सामने आने के बाद यह सवाल एक बार फिर से चर्चा में है कि आखिर मदरसों में बच्चों को कैसी शिक्षा और परवरिश दी जा रही है? क्या यह तालीम डर और दमन के सहारे चल रही है या बच्चों के संवेदनशील विकास के लिए कोई मानक व्यवस्था मौजूद है?
मुफ्त तालीम के पीछे छिपा दर्दनाक सच
देशभर के हजारों मदरसों में गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं। अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को इसलिए मदरसों में भेजते हैं क्योंकि वहां रहना-खाना और पढ़ाई मुफ्त होती है। लेकिन इसी ‘मुफ्त तालीम’ की परतों के पीछे कई बार ऐसी कहानियां छिपी होती हैं जो सुनकर समाज की अंतरात्मा हिल जाती है।
पिछले दस वर्षों में केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली, असम और महाराष्ट्र तक से ऐसे मामले सामने आए हैं जहां बच्चों के साथ मारपीट, बंदी बनाकर रखना, यौन शोषण या अमानवीय सज़ा की घटनाएं हुईं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इन मामलों में कई बार संज्ञान लेकर जांचें करवाई हैं।
उस्तादों की ट्रेनिंग पर गंभीर सवाल
मदरसे के उस्ताद यानी शिक्षक इस तालीमी ढांचे की रीढ़ माने जाते हैं। लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे उस्ताद हैं जिनके पास न तो औपचारिक शिक्षक प्रशिक्षण है और न ही बाल मनोविज्ञान या शिक्षा-शास्त्र की समझ। कुछ बड़े संस्थानों में शिक्षक प्रशिक्षण की व्यवस्था जरूर है, लेकिन छोटे मदरसों में अब भी पुराने तौर-तरीकों से शिक्षा दी जा रही है। कई जगह बच्चों को अनुशासन के नाम पर डराया-धमकाया या मारा-पीटा जाता है।
अंदरूनी हालात पर भी उठते हैं सवाल
मदरसों की रहन-सहन व्यवस्था पर भी कई शिकायतें मिलती रही हैं। बच्चों को तंग और गंदी जगहों में रखा जाता है, खाने-पीने में भेदभाव की खबरें आती हैं और बीमार बच्चों की देखभाल में लापरवाही बरती जाती है। आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता अक्सर अपने बच्चों की शिकायतों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि बच्चा मदरसे से निकाल न दिया जाए।
कानून है, लेकिन निगरानी नहीं
देश में बाल संरक्षण और पॉक्सो कानून तो हैं, लेकिन मदरसों के लिए कोई विशेष नियामक ढांचा नहीं है। निरीक्षण की व्यवस्था भी लगभग नाममात्र है। जब तक कोई शिकायत दर्ज न हो, प्रशासन या पुलिस की कार्रवाई शुरू नहीं होती। इससे कई मामलों में बच्चे लंबे समय तक उत्पीड़न झेलते रहते हैं।
बागपत की घटना बनी चेतावनी
बागपत का तिहरा हत्याकांड सिर्फ एक अपराध नहीं बल्कि उस व्यवस्था की कमजोरी को उजागर करता है, जिसमें बच्चों की सुरक्षा और संवेदना के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं बन पाई है। यह घटना उन सभी धार्मिक शैक्षणिक संस्थानों के लिए चेतावनी है, जो “अनुशासन” के नाम पर बच्चों पर अत्याचार को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।
ज़रूरत सुधार और निगरानी की
मदरसों में पढ़ाने वालों को औपचारिक शिक्षक प्रशिक्षण देना, हर मदरसे का पंजीकरण अनिवार्य करना और नियमित निरीक्षण की व्यवस्था करना अब समय की मांग है। इसके साथ ही, अभिभावकों को भी यह समझना होगा कि मुफ्त पढ़ाई का मतलब बच्चों की चुप्पी नहीं होना चाहिए। बच्चों की शिकायतों को गंभीरता से सुनना और उनके अधिकारों की रक्षा करना सबसे जरूरी है।
तालीम का असली मकसद इंसान बनाना है
अगर शिक्षा का उद्देश्य इंसान बनाना है, तो उसे डर और दमन नहीं बल्कि समझ, करुणा और समानता की बुनियाद पर खड़ा होना चाहिए। बागपत की यह दर्दनाक घटना हमें यही सिखाती है कि अब वक़्त आ गया है, जब हमें धार्मिक शिक्षा के ढांचों के भीतर झांककर बच्चों की सुरक्षा को तालीम का सबसे अहम हिस्सा बनाना होगा।