अहले बैत-इल्म की वो रोशनी जो मदीने से दुनिया भर में फैली

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(रईस खान)
( इससे पहले क़ुरान में तालीम और इल्म की चर्चा के बाद नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक ए तालीम पर अलग-अलग आर्टिकल लिख चुका हूं। और अब पेश है अहले बैत का तरीका ए तालीम। इसके बाद सहाबा रजिअल्लाह, ताबईन, तबेताबईन, औलिया अल्लाह और सालेहीन के तरीका ए तालीम से लेकर जदीद तालीम पर लिखने का इरादा है इंशाअल्लाह। अपनी राय और मशविरे से “तालीम और इल्म” मिशन को आगे बढ़ाने में मदद फरमाएं )

जब रसूलुल्लाह ﷺ इस दुनिया से रुख़सत हुए, तो आपने अपने पीछे दो अमानतें छोड़ीं, क़ुरान और अहले बैत।‌और ये सच है कि इन दोनों ने मिलकर इल्म की वो विरासत कायम रखी,जिसने इस्लाम को सिर्फ़ मज़हब नहीं, बल्कि एक तालीमी तहज़ीब बना दिया।

नबी की छोड़ी हुई मशाल

रसूलुल्लाह ﷺ ने कहा था, “मैं तुम्हारे बीच दो चीज़ें छोड़ रहा हूँ: क़ुरान और अहले बैत; जब तक तुम इनसे जुड़े रहोगे, गुमराह नहीं होगे।” यानी क़ुरान इल्म का नूर है, और अहले बैत उस नूर के रखवाले। नबी के बाद इन्हीं घरवालों ने इल्म को आम करने का मिशन संभाला, बिना दरबार, बिना ताज, लेकिन क़लम और किरदार से।

हज़रत अली (रज़ि.), तालीम के दरवाज़े खोलने वाले

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को “बाब-उल-इल्म” यानी “इल्म का दरवाज़ा” कहा गया। रसूल ﷺ ने फरमाया, “मैं इल्म का शहर हूँ और अली उसका दरवाज़ा है।” उन्होंने न सिर्फ़ क़ुरान की गहराई सिखाई बल्कि फिक़्ह, क़ज़ा, बयान और हिकमत की बुनियाद रखी। उनका तरीका बड़ा सादा था, किसी मस्जिद के कोने में बैठ जाते, सवाल करने वालों को बुलाते, और हक़ की बात समझाते। वो कहते, “इल्म दौलत से बेहतर है, क्योंकि इल्म तुम्हारी हिफ़ाज़त करता है और दौलत की हिफ़ाज़त तुम्हें करनी पड़ती है।”

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (रज़ि.), इल्म और इस्लामी शालीनता का संगम

नबी ﷺ की बेटी फ़ातिमा ज़हरा रज़ियल्लाहु अन्हा ने
औरतों के लिए तालीम और हया दोनों को साथ रखा। उन्होंने औरतों को यह सिखाया कि ज्ञान सिर्फ़ मर्दों की मिल्कियत नहीं, बल्कि औरतों का भी हक़ है। उनकी ज़िंदगी आज की हर मुस्लिम औरत के लिए एक तालीमी सबक़ है, कि इल्म से शराफ़त बढ़ती है, और शराफ़त से इल्म की कीमत।

इमाम हसन और इमाम हुसैन (रज़ि.), इल्म को अमल से जोड़ने वाले

इमाम हसन रज़ि. और इमाम हुसैन रज़ि. दोनों ने इल्म को इंसाफ़ और अमन से जोड़कर आगे बढ़ाया। उनकी तालीम सिर्फ़ किताबों में नहीं थी, बल्कि उन्होंने सिखाया कि बिना अमल के इल्म अधूरा है। इमाम हुसैन रजि ने करबला में जान देकर यह साबित कर दिया कि अगर इल्म ज़ुल्म के आगे झुक जाए तो वो “इल्म” नहीं, “कमज़ोरी” है। उनकी शहादत ने दुनिया को सिखाया कि सच्चा इल्म हमेशा हक़ की तरफ खड़ा होता है।

इमाम ज़ैनुल आबिदीन, इल्म का सुकूनभरा चेहरा

करबला के बाद जब हालात मुश्किल हुए, तो इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने दुआओं और तालीम को अपना हथियार बनाया। उनकी “सहीफ़ा-ए-सज्जादिया” आज भी तालीम का एक ख़ज़ाना है, जिसमें इंसानियत, इबादत, और इल्म को एक साथ जोड़ा गया है। उन्होंने दिखाया कि तालीम सिर्फ़ बोलने से नहीं, बल्कि खुद के अंदर सुधार लाने से फैलती है।

इमाम बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़, तालीम के सिस्टम बनाने वाले

इमाम बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ ने इस्लामी इतिहास की पहली तालीमी अकादमियां कायम कीं। इमाम जाफ़र सादिक़ के शागिर्दों में इमाम अबू हनीफ़ा, इमाम मालिक, और जाबिर बिन हय्यान (केमिस्ट्री के जनक) जैसे नाम शामिल हैं।उन्होंने हर विज्ञान को क़ुरान की तालीम से जोड़ा। उनका उसूल था,“इल्म का असली मक़सद इंसान को इंसाफ़ और तवाज़ुन सिखाना है।” यानी उनकी क्लास में धर्म और विज्ञान एक साथ चलते थे।

अंधेरे में भी उजाला

अहले बैत ने कभी ताज या ताक़त नहीं चाही, उन्होंने चाहा कि इल्म हर घर तक पहुंचे। उन्होंने मस्जिदों को मदरसा बनाया, और तसव्वुफ़ को तालीम की नई ज़ुबान।उनकी कोशिशों का नतीजा था कि इस्लामी दौर में ज्ञान की नई लहर उठी,जहाँ से यूनान, मिस्र और यूरोप तक इल्म पहुंचा।

आज का सबक़

अहले बैत की तालीम हमें यह याद दिलाती है कि इल्म का असली काम इंसान को बेहतर बनाना है,‌ अहंकारी नहीं। उन्होंने सिखाया कि तालीम तब मुकम्मल है जब वो दिल को रोशन करे और अमल को सच्चा बनाए।

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