सहीफ़ा-ए-तक़दीर: क्या सब कुछ पहले से तय है?

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(मुफ़्ती इनामुल्लाह खान)

ज़िंदगी ख़ुशी और ग़म, कामयाबी और नाकामी, उम्मीद और मायूसी का मज़मूआ है। कभी हम अपनी मेहनत के बावजूद नतीजे वैसे नहीं पाते जैसे चाहते हैं, और कभी बग़ैर किसी उम्मीद के नेमतें मिल जाती हैं। ऐसे में एक सच्चा मोमिन दिल से यक़ीन रखता है कि हर चीज़ अल्लाह तआला के हुक्म, इल्म, और इरादे के मुताबिक़ होती है, चाहे वो हमारे लिए बज़रग़र (बाहिर) अच्छी हो या बुरी।

यही यक़ीन “तक़दीर पर ईमान” कहलाता है, जो ईमान के छह बुनियादी अरकान में से एक है।

तक़दीर पर ईमान रखना न सिर्फ़ इस्लामी अ़क़ीदा है, बल्कि एक अ़क़ली हक़ीक़त भी है। इंसान अपनी ज़िंदगी में बहुत से इरादे करता है, मंसूबा-बंदी करता है मगर हमेशा वही नहीं होता जो वो चाहता है।

बेहतरीन ख़लाइक़: इंसान
इंसान अपनी हक़ीक़त में महज़ ख़ाक का पुतला है, मगर जब अल्लाह तआला की तख़लीक़ी क़ुदरत उस पर जल्वा-गर होती है, तो वो एक जीता-जागता शाहकार बन जाता है।

अल्लाह तआला फ़रमाते हैं:

هُوَ الَّذِیْ یُصَوِّرُكُمْ فِی الْاَرْحَامِ كَیْفَ یَشَآءُؕ۔ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ الْعَزِیْزُ الْحَكِیْمُ
(आल-ए-इमरान 6)
“वो तुम्हें रहम-ए-मादर में जिस तरह चाहते हैं, तख़्लीक़ करते हैं। उनके सिवा कोई माबूद नहीं, वो ज़बरदस्त हिकमत वाले हैं।”

एक मामूली नुत्फ़ा, जो पानी की एक बूँद से ज़्यादा कुछ नहीं, अल्लाह तआला के हुक्म से गोश्त-ओ-पोस्त का हसीन पैकर बन जाता है। उसकी आँखों में बीनाई, उसके दिल में ज़िंदगी की हरारत, उसके लबों पर मुस्कुराहट और उसके दिमाग़ में फ़िक्र-ओ-शऊर के चराग़ रोशन हो जाते हैं।

इंसान अभी दुनिया में नहीं आया होता, मगर उसकी सूरत-गारी हो रही होती है। कहीं उसके हाथों की लकीरें बन रही होती हैं, तो कहीं उसकी आँखों का रंग मुतअय्यन हो रहा होता है। उसका क़द, उसकी जिस्मानी बनावट, उसकी ज़ेहानत, उसकी सलाहियतें — सब कुछ एक ग़ैर-मरई दस्तकारी के तहत तख़्लीक़ हो रही होती हैं।

ये कैसा हैरत-अंगेज़ निज़ाम है कि माँ के पेट में पलने वाले एक नातवाँ वजूद के हर पहलू को पहले से तय कर दिया गया है!

किसके चेहरे पर ख़ुशी की रौनक होगी और किसकी पेशानी पर मायूसी की शिकनें — मगर दोनों सूरतों में उसकी आज़माइश होती है कि वो सब्र-ओ-इस्तिक़लाल और शुक्र-ओ-सप़ास के साथ कब तक क़ायम रहता है।

यहाँ “كَيْفَ يَشَاءُ” — तुम्हारी सूरत-गारी “जिस तरह चाहता है करता है” — में जो वुसअत और इख़्तियार का एलान है, वो इंसान को उसकी बेबसी का एहसास दिलाता है।

न कोई अपनी आँखों की रंगत बदल सकता है, न अपनी पैदाइशी बनावट।
न कोई ख़ुद को तवील-उल-क़ामत बना सकता है, न कोई अपनी त्वचा का रंग ख़ुद तय कर सकता है, और न लड़का-लड़की बनने में किसी का कोई इख़्तियार…

जो कुछ भी वो है, जैसा भी वो है, वो अल्लाह तआला की मशीअत के ताबे है।

इसलिए अगर जिस्म में कोई कमी है तो अपने रब के फ़ैसले पर रज़ामंद रहते हुए सब्र करना चाहिए।
और अगर कोई खूबी है तो समझना चाहिए कि ये सब उसका अपना इंतेख़ाब नहीं, बल्कि अल्लाह तआला का अ़तिया है।

क्योंकि जो भी शक्ल-ओ-सूरत, जो भी सलाहियतें उसे अ़ता की गई हैं, वो उसके लिए अल्लाह तआला का इंतेख़ाब हैं और उसके लिए वही बेहतर हैं।

“وَصَوَّرَكُمْ فَأَحْسَنَ صُوَرَكُمْ” (अत-तग़ाबुन: 3)
“और उसने तुम्हारी सूरत बनाई, फिर उसे बेहतरीन बनाया।”

हर इंसान अल्लाह तआला की नज़र में मुकम्मल और ख़ूबसूरत है, क्योंकि उसे उसी हिकमत के मुताबिक़ तख़्लीक़ किया गया है, जो उसके लिए सबसे बेहतर थी।

यह आयत महज़ एक हक़ीक़त नहीं, बल्कि एक पैग़ाम है, एक दरस है, एक ज़िंदगी गुज़ारने का उसूल है।
इसमें अल्लाह तआला के इख़्तियार, उनकी मोहब्बत, और उनके फ़ैसले पर यक़ीन रखने का दरस है।

इंसान को चाहिए कि वो ख़ुद को किसी और के पैमाने पर न तौले, बल्कि ये समझे कि उसकी तख़्लीक़ में जो कुछ भी है, वो बेहतरीन है।
अल्लाह तआला की तक़दीर में कभी भूल नहीं, उसकी सनअ़त में कोई कमी नहीं, और उसके फ़ैसलों में कभी नाइंसाफ़ी नहीं।
जो कुछ भी हमें मिला, वो अल्लाह तआला की बेहतरीन मशीअत है।

इंसानी जिस्म का पेचीदा निज़ाम

दिल की धड़कन, साँस लेने का अमल, डी.एन.ए. का प्रोग्राम, और दिमाग़ की कारकर्दगी — सब एक मुक़र्ररा तक़दीर के तहत काम कर रहे हैं।
हम अपनी मर्ज़ी से दिल की धड़कन को नहीं रोक सकते,
न ही ख़ुद से डी.एन.ए. का कोड बदल सकते हैं।
ये सब अल्लाह तआला की तय की हुई तक़दीर के मुताबिक़ चलते हैं।

तक़दीर पर ईमान
इंसान अपनी ज़िंदगी में कई मरतबा ऐसे हालात का सामना करता है जो उसके इख़्तियार में नहीं होते —
जैसे:
▪️ सेहत और बीमारी के हालात।
▪️ ग़ैर-मुतवक़्क़े हादिसात या कामयाबियाँ वग़ैरह।

अगर इंसान अपनी तक़दीर का मालिक होता तो वो हमेशा अपने हक़ में बेहतर चीज़ों का इंतेख़ाब करता।
लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं है।

रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
“لَا يُؤْمِنُ عَبْدٌ حَتَّىٰ يُؤْمِنَ بِالْقَدَرِ، خَيْرِهِ وَشَرِّهِ.”
(सहीह मुस्लिम)
“कोई शख़्स उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक वो तक़दीर पर ईमान न ले आए, चाहे वो ख़ैर हो या शर।”

ये अ़क़ीदा इंसान को बे-यक़ीनी की कैफ़ियत से निकाल कर इतमिनान की रौशनी अ़ता करता है।

तक़दीर के चार बुनियादी अनासिर

1️⃣ अल्लाह तआला का इल्म
अल्लाह तआला हर चीज़ को जानते हैं — जो कुछ हो चुका, जो हो रहा है, और जो होने वाला है। अल्लाह तआला का इल्म कामिल और बे-ऐब है।

अल्लाह तआला फ़रमाते हैं:
“أَلَمْ تَعْلَمْ أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ؟”
(अल-हज: 70)
“क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह तआला आसमान और ज़मीन की हर चीज़ को जानते हैं?”

وَعِندَهُ مَفَاتِحُ الْغَيْبِ لَا يَعْلَمُهَا إِلَّا هُوَ ۖ وَيَعْلَمُ مَا فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ ۚ وَمَا تَسْقُطُ مِن وَرَقَةٍ إِلَّا يَعْلَمُهَا ۚ وَلَا حَبَّةٍ فِي ظُلُمَاتِ الْأَرْضِ وَلَا رَطْبٍ وَلَا يَابِسٍ إِلَّا فِي كِتَابٍ مُّبِينٍ
(अल-अनआम: 59)
“और उन्हीं के पास ग़ैब की चाबियाँ हैं, उन्हें उनके सिवा कोई नहीं जानता। और वो जानते हैं जो कुछ ख़ुश्की और समुंदर में है, और कोई पत्ता नहीं गिरता मगर वो उसे जानते हैं, और कोई दाना ज़मीन के अँधेरों में नहीं, और न कोई तर है और न ख़ुश्क, मगर वो सब कुछ एक वाज़ेह किताब में (लिखा हुआ) है।”

सब कुछ लौह-ए-महफ़ूज़ में लिखा हुआ है।

“أَلَمْ تَعْلَمْ أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ ۗ إِنَّ ذَٰلِكَ فِي كِتَابٍ ۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرٌ”
(अल-हज: 70)
“क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह आसमान और ज़मीन की हर चीज़ का इल्म रखता है? बेशक ये सब कुछ एक किताब में (लिखा हुआ) है, और बेशक ये अल्लाह के लिए बिल्कुल आसान है।”

ये यक़ीन इंसान के दिल से बेचैनी ख़त्म कर देता है क्योंकि वो जानता है कि उसकी ज़िंदगी का हर लम्हा उसके रब और सबसे बड़े मुहसिन के इल्म में है।

अल्लाह तआला की मशीअत (इरादा)▪️

अल्लाह तआला की मर्ज़ी के बिना कोई चीज़ नहीं हो सकती। हर अमल, हर तब्दीली, हर फ़ैसला अल्लाह तआला की मशीअत से मुमकिन होता है।

: अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं
“वَمَا تَشَاؤُونَ إِلَّا أَن يَشَاءَ اللَّهُ.”
(तकवीर: 29)

“और तुम कुछ नहीं चाह सकते जब तक अल्लाह तआला न चाहें।”

यानि हमारा चाहना भी अल्लाह तआला की तौफ़ीक़ के ताबे है।

وَمَا هُم بِضَآرِّينَ بِهِ مِنْ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذْنِ اللَّهِ (बक़रह: 102)▪️
“और वो किसी को नुक़सान नहीं पहुँचा सकते, मगर अल्लाह तआला के इज़्न (ढील) से।”

قُل لَّن يُصِيبَنَآ إِلَّا مَا كَتَبَ ٱللَّهُ لَنَا (तौबह: 51)▪️
“कह दो! हमें कोई नुक़सान नहीं पहुँच सकता, मगर वही जो अल्लाह तआला ने हमारे हक़ में लिख दिया है।”


अल्लाह तआला की तख़्लीक़▪️

अल्लाह तआला हर चीज़ के ख़ालिक़ हैं, चाहे वो हमारे आमाल हों या हमारी ज़िंदगी के हालात।

: अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं
“إِنَّا كُلَّ شَيْءٍ خَلَقْنَاهُ بِقَدَرٍ.”
(क़मर: 49)
“बे शक हमने हर चीज़ को एक मुक़र्रर तदबीर के मुताबिक़ पैदा किया है।”

وَرَبُّكَ يَخْلُقُ مَا يَشَاءُ وَيَخْتَارُ▪️
(अल-क़सस 68)
“और तेरा रब जो चाहता है पैदा करता है और (जिसे चाहता है) चुन लेता है।”


इंसान: तक़दीर के धारे में बहता एक मुसाफ़िर या अपने रास्ते का मआ’मार?

ये सवाल हमेशा से इंसानी ज़ेहन को मुतहैय्यर किए हुए है कि क्या इंसान वाक़ई मजबूर है?
अगर उसकी क़िस्मत का हर हरफ़ पहले ही लौहे-तक़दीर पर रक़्म हो चुका है,
अगर उसके फ़ैसले किसी अन देखे क़लम से तहरीर कर दिए गए हैं, तो फिर जज़ा व सज़ा का फ़लसफ़ा क्यों?
अगर वो अपनी राहों का ख़ुद मआ’मार नहीं, तो फिर उसके अच्छे और बुरे आमाल का हिसाब क्यों?
यही वो नुक्ता है जहाँ तक़दीर और इख़्तियार के दरमियान नाज़ुक तवाज़ुन को समझना लाज़िम हो जाता है।

अल्लाह तआला का इल्म अज़ली व अबदी है, लेकिन ये इल्म किसी जब्र का एलान नहीं।
एक उस्ताद अपने ज़हीन और मेहनती शागिर्द को देखकर पहले ही उसकी कामयाबी का अंदाज़ा लगा सकता है,
मगर क्या ये इल्म, तालेब-इल्म के इम्तेहान में कामयाब होने का सबब बनता है?
नहीं!
उसकी कामयाबी उसकी अपनी मेहनत की मरहून-ए-मनत होती है।

यही हाल इंसान और तक़दीर का है। अल्लाह तआला हर शै से वाक़िफ़ हैं, हर लम्हे से बाख़बर हैं, मगर उनका इल्म इंसान के इख़्तियार में रुकावट नहीं डालता।
तक़दीर एक राह है, मगर चलने के क़दम इंसान के अपने हैं।
वो चाहे तो सिरा-ए-मुस्तक़ीम इख़्तियार करे, और चाहे तो ख़ुद को भटकने के सुपुर्द कर दे।

दुआ और तक़दीर

क्या लिखी हुई तहरीर मिट सकती है?

: ये सवाल भी सदीयों से अहल-ए-फ़िक्र को मुतवज्जेह करता आया है कि

क्या दुआ तक़दीर बदल सकती है?

: नबी करीम ﷺ का एक इरशाद इस राज़ से पर्दा उठाता है

“لَا يَرُدُّ الْقَدَرَ إِلَّا الدُّعَاءُ”
तक़दीर को सिवाए दुआ के कुछ नहीं बदल सकता। (सुनन तिर्मिज़ी)

ये हदीस इस हक़ीक़त को वाज़ेह करती है कि दुआ वो हाथ है जो तक़दीर के दरिचों पर दस्तक देता है।
ये वो रौशनी है जो लिखी हुई सतरों में नया रंग भर देती है।
दुआ महज़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि बंदे का अपने रब से वो तअल्लुक़ है जो लिखी हुई ख़ुश्क क़िस्मत को भी नमी अता कर सकता है।


तक़दीर का राज़

ये दुनिया एक आज़माइश है, जहाँ हर फ़र्द को ख़ैर व शर के दरमियान चुनाओ का इख़्तियार दिया गया है।
अल्लाह तआला का इल्म हर चीज़ पर हावी है, मगर ये इल्म इंसान की राह में क़ैद व ज़ंजीर नहीं बनता।
कामयाब वही है जो अपनी तक़दीर को तदबीर, दुआ, और नेक आमाल के ज़रिए सँवारने की कोशिश करता है।
क्योंकि नसीब लिखा ज़रूर जा चुका है, मगर ये इख़्तियार इंसान के पास है कि वो इस तहरीर को किस रंग में ढालता है।
जो कुछ इस दुनिया में होता है, वो पहले से लौह-ए-महफ़ूज़ में लिखा जा चुका है।

: अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं

“مَا أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ فِي ٱلْأَرْضِ وَلَا فِيٓ أَنفُسِكُمْ إِلَّا فِي كِتَـٰبٍۢ مِّن قَبْلِ أَن نَّبْرَأَهَآ”
(हदीद: 22)
“ज़मीन में या तुम्हारी जानों पर जो मुसीबत आती है, वो एक किताब में लिखी जा चुकी है, इस से पहले कि हम उसे वक़ू में लाएँ।”


तक़दीर पर ईमान के फ़वाइद

दिल का सुकून और सब्र▪️

: रसूलुल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाते हैं
“عَجَبًا لِأَمْرِ الْمُؤْمِنِ! إِنَّ أَمْرَهُ كُلَّهُ لَهُ خَيْرٌ، إِنْ أَصَابَتْهُ سَرَّاءُ شَكَرَ فَكَانَ خَيْرًا لَهُ، وَإِنْ أَصَابَتْهُ ضَرَّاءُ صَبَرَ فَكَانَ خَيْرًا لَهُ.”
(सहीह मुस्लिम)
“मोमिन के लिए हर हाल में भलाई है, अगर उसे ख़ुशी मिले तो वो शुकर अदा करता है, और अगर उसे तकलीफ़ पहुँचे तो वो सब्र करता है, और दोनों सूरतों में उसके लिए भलाई ही है।”


तकब्बुर से हिफ़ाज़त▪️

तक़दीर पर ईमान रखने वाला शख़्स अपनी कामयाबी पर इतराता नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला का शुकर अदा करता है।

: इरशाद है

“لِكَيْلَا تَأْسَوْا عَلَىٰ مَا فَاتَكُمْ وَلَا تَفْرَحُوا بِمَا آتَاكُمْ.”
(हदीद: 23)
“ताकि तुम उस चीज़ पर अफ़सोस न करो जो तुम से छूट गई, और न ही उस पर ख़ुश हो जो तुम्हें दिया गया।”


मायूसी से बचाव▪️

तक़दीर पर ईमान रखने वाला शख़्स मायूस नहीं होता क्योंकि वो जानता है कि अल्लाह तआला जो कुछ करते हैं, बेहतर ही करते हैं।

: अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं

عَسٰۤى اَنْ تَكْرَهُوْا شَیْــٴًـا وَّ هُوَ خَیْرٌ لَّكُمْۚ – وَ عَسٰۤى اَنْ تُحِبُّوْا شَیْــٴًـا وَّ هُوَ شَرٌّ لَّكُمْؕ – وَ اللّٰهُ یَعْلَمُ وَ اَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ(216)
“मुमकिन है कि कोई बात तुम्हें नापसंद हो हालाँकि वो तुम्हारे हक़ में बेहतर हो और मुमकिन है कि कोई बात तुम्हें पसंद हो हालाँकि वो तुम्हारे हक़ में बुरी हो और अल्लाह तआला जानते हैं और तुम नहीं जानते।”

क्या इंसान के पास इख़्तियार है?

अल्लाह तआला की ज़ात कादिर-ए-मुतलक़ है, वही काइनात के ख़ालिक़, मौत व हयात के मालिक, और जज़ा व सज़ा का फ़ैसला फ़रमाने वाले हैं।
उनकी बादशाहत में कोई उनका शरीक नहीं, उनके फ़ैसले हत्मी हैं कोई उन्हें टाल नहीं सकता।
जन्नत व जहन्नम, मग़फ़िरत व अज़ाब सब उन्हीं के इख़्तियार में हैं, मगर वो ऐसे हाकिम नहीं जो किसी पर नाहक़ ज़ुल्म करें, वो सरापा अद्ल व रहमत हैं।
उनकी रहमत व इंसाफ़ के पैमाने कामिल हिकमत पर मबनी हैं।
वो अपने बंदों की अदना नेकी को भी नज़रअंदाज़ नहीं करते, बल्कि अजर व सवाब में कई गुना इज़ाफ़ा फ़रमाते हैं।
उनके अद्ल का तक़ाज़ा है कि जो उनके हुक्म के मुताबिक़ ज़िंदगी बसर करे, उसे बेहतरीन जज़ा दें और जो सरकशी व नाफ़रमानी का रास्ता अपनाए, उसे उसके बुरे अंजाम तक पहुँचाएँ।

: इरशाद है

“إِنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَنْ يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَنْ يَشَاءُ”
“बे शक अल्लाह तआला शिर्क को माफ़ नहीं करते, और उसके अलावा जिसे चाहें बख़्श देते हैं।” (अन-निसा: 48)

यहाँ “لِمَنْ يَشَاءُ” की वज़ाहत इस हक़ीक़त को वाज़ेह करती है कि मग़फ़िरत महज़ एक ग़ैर मशरूत बख़्शिश नहीं, बल्कि अल्लाह तआला के इल्म, हिकमत और बंदे के आमाल के मुताबिक़ है।
वो चाहें तो एक मामूली नेकी पर भी रहमत के दरवाज़े खोल दें और चाहें तो किसी की सरकशी पर उसे अज़ाब में मुबतला कर दें, मगर उनका हर फ़ैसला सरासर अद्ल और इंसाफ़ पर मबनी होता है।


अल्लाह तआला की रहमत, ग़ज़ब पर ग़ालिब है

: नबी करीम ﷺ ने हदीस-ए-क़ुदसी में अल्लाह तआला का इरशाद नक़्ल किया है

“إِنَّ رَحْمَتِي غَلَبَتْ غَضَبِي”
“बे शक मेरी रहमत मेरे ग़ज़ब पर ग़ालिब है।”
(बुख़ारी, मुस्लिम)

यही वजह है कि अल्लाह तआला किसी को बे वजह अज़ाब में मुबतला नहीं करते, बल्कि वो अपने बंदों को बार-बार तौबा और रुजू का मौक़ा फ़राहम करते हैं, ताकि वो अपने आमाल की इस्लाह कर सकें और अपनी आख़िरत सँवार सकें।

: अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं

يَغْفِرُ لِمَن يَشَاءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَاءُ ۚ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
“जिसे चाहते हैं बख़्श देते हैं और जिसे चाहते हैं अज़ाब देते हैं और अल्लाह तआला बड़ी मग़फ़िरत फ़रमाने वाले, रहम करने वाले हैं।”

मुस्तहिक़ीन-ए-अज़ाब को अज़ाब देना अल्लाह तआला के अद्ल की बुनियाद पर होगा।
जिसके जिस तरह के आमाल होंगे उसी तरह का उसे बदला मिलेगा।
अल्लाह तआला किसी पर जब्र नहीं करते, बल्कि नतीजा ऐन मुताबिक़ अद्ल होगा।

: नबी करीम ﷺ इरशाद फ़रमाते हैं

كُلُّكُمْ تَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ إِلَّا مَنْ أَبَى، قَالُوا: يَا رَسُولَ اللَّهِ، وَمَنْ يَأْبَى؟ قَالَ: مَنْ أَطَاعَنِي دَخَلَ الْجَنَّةَ، وَمَنْ عَصَانِي فَقَدْ أَبَى.

“तुम सब जन्नत में दाख़िल होगे, सिवाय उसके जो इनकार करे।”
सहाबा ने अर्ज़ किया: “या रसूलल्लाह! कौन इनकार करेगा?”
फ़रमाया: “जिसने मेरी इताअत की, वो जन्नत में दाख़िल होगा, और जिसने नाफ़रमानी की, वही इनकार करने वाला है।”

(सहीह बुख़ारी)

: और इरशाद फ़रमाते हैं

إِنَّ اللَّهَ لَا يَظْلِمُ النَّاسَ شَيْئًا، وَلَكِنَّ النَّاسَ أَنفُسَهُمْ يَظْلِمُونَ
“बे-शक अल्लाह तआला लोगों पर ज़र्रा बराबर भी ज़ुल्म नहीं करते, बल्कि लोग ख़ुद अपने ऊपर ज़ुल्म करते हैं।”

(सहीह मुस्लिम)

एक शख़्स यह जानते हुए कि क़त्ल का अंजाम क़त्ल या उमर क़ैद है फिर भी इस जुर्म का इर्तिकाब करता है, तो ज़ाहिर है उसने अपने लिये सज़ा का फ़ैसला ख़ुद किया हुआ है। अल्लाह तआला ने ख़ैर व शर, हिदायत व ज़लालत के रास्ते और उनके अंजाम वाज़ेह कर दिये हैं, अब इंतिख़ाब बंदे का है कि वह किस राह पर चलता है।

अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं —
“व क़ुलिल-हक्कु मिन रब्बिकुम, फ़मन शा’ फ़ल-यु’मिन व मन शा’ फ़ल-यकफ़ुर”
और आप कह दीजिये कि यह हक़ है आपके रब की तरफ़ से, फिर जो चाहे ईमान ले आये और जो चाहे इनकार कर दे। (अल-कहफ़: 29)

यह ऐलान इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा है कि ईमान ज़बरदस्ती किसी के दिल में नहीं बिठाया जा सकता, बल्कि यह बंदे के इख़्तियार पर मुनहसिर है।

इसी तरह फ़रमाया —
“इन्ना हदैनाहुस्सबीला इम्मा शाकिरन व इम्मा कफ़ूरा”
हम ने उसे रास्ता दिखा दिया, अब चाहे शुक्रगुज़ार बने या नाशुक्रा। (अद-दहर: 3)

यहाँ “इम्मा शाकिरन व इम्मा कफ़ूरा” के अल्फ़ाज़ इंसान के इख़्तियार की भरपूर वज़ाहत करते हैं कि अल्लाह ने उसे आज़ाद पैदा किया है, उसके आमाल के नताइज उसी पर मर्तब होंगे।

जो बुराई करेगा, वह उसकी सज़ा पायेगा —
“मन यअमल सूअन युजज़ बिहि व ला यजिद लहु मिन दूनि-ल्लाहि वलिय्यन व ला नसीरा” (निसा: 123)
जो भी बुराई करेगा, उसे उसकी सज़ा दी जायेगी और वह अल्लाह तआला के सिवा न कोई हिमायती पायेगा और न कोई मददगार।

आगे की आयत में अल्लाह तआला ने जज़ा व सज़ा के उसूल को वाज़ेह कर दिया है —
“लहा मा कसबत व अलैहा मा-इक्तसबत” (बक़रह: 286)
जो नेकी करेगा वह उसके हक़ में है, और जो बुराई करेगा वह उसके ख़िलाफ़ है।

इंसान का इख़्तियार और अद्ल-ए-इलाही
यह एक नाक़ाबिले-तर्दीद हक़ीक़त है कि इंसान को शऊर और इख़्तियार की नेअमत से सरफ़राज़ किया गया है। दुनिया में वह जिस राह का इंतिख़ाब करता है, उसका अंजाम भी उसी के मुताबिक़ मुक़द्दर होता है।

अगर कोई शख़्स ज़ुल्म की तारीक़ियों में भटकता रहे, हवस और ख़यानत को अपना शिआर बना ले, दूसरों के हक़ूक़ ग़صب करे और झूट व फ़रेब के सहारे अपनी दुनिया सँवारने की कोशिश करे, तो यह कैसे मुमकिन है कि आख़िरत में उसके लिये राहत व सुकून का सामान कर दिया जाये?

इसी तरह, एक मुख़लिस और नेकोकार शख़्स, जो तक़वा व इख़लास की रौशनी में ज़िंदगी बसर करे, अल्लाह तआला के बंदों के साथ अद्ल व एहसान का बर्ताव करे, और हक़ व सिद्क़त की राह पर गामज़न रहे, वह कभी ख़सारे में नहीं रह सकता।

अल्लाह तआला ने ख़ैर व शर की राहें वाज़ेह कर दी हैं, और इंसान को वह बस़ीरत बख़्शी है जिसके ज़रिये वह अपने मुस्तक़बिल का फ़ैसला ख़ुद कर सकता है। उसकी मशीअत, अद्ल और रहमत एक कामिल तवाज़ुन के साथ कारफ़रमा है। न वह किसी पर बिलावजह अज़ाब नाज़िल करता है, न किसी को बेसबब बख़्शिश से नवाज़ता है, बल्कि हर फ़ैसले की बुनियाद उसकी हिकमत और इंसान के आमाल पर है।

हक़ीक़ी कामयाबी उसी के हिस्से में आयेगी जो ईमान और नेक आमाल की रौशनी में अपनी राह मुय्यन करेगा, और नामुरादी उसका मुक़द्दर होगी जो नाफ़रमानी और सरकशी को अपना वतीरा बना ले।

यह दुनिया महज़ एक इम्तेहानगाह है, जहाँ हर अमल का रिकॉर्ड महफ़ूज़ हो रहा है, और आख़िरत वह अज़ीम दिन है जहाँ हर अमल का हिसाब होगा।

जो शख़्स अल्लाह तआला की रहमत का तल्बगार होगा, वह उसकी आग़ोश-ए-आतिफ़त में पनाह पायेगा, और जो अपनी सरकशी के बाइस अज़ाब का मुस्तहिक़ बनेगा, उसके लिये कोई जाये पनाह न होगी।

इस्लाम हमें तक़दीर और इख़्तियार के माबैन एक हसीन तवाज़ुन का درس देता है।

नबी करीम ﷺ का इरशाद-ए-ग़रामी है —
“इअमलू, फ़कुल्लुम मुय्यसरुल लिमा खुलिक़ लह” (सहीह मुस्लिम)
“अमल करो, क्योंकि हर एक के लिये वही रास्ता आसान किया गया है जिसके लिये वह पैदा किया गया है।”

यह इरशाद हमें बावर कराता है कि इंसान जो कुछ भी करता है, उसके नताइज वैसे ही बरामद होते हैं। तक़दीर पर कामिल ईमान रखने वाला शख़्स हर हाल में मुतमइन रहता है, क्योंकि वह जानता है कि ख़ुशी और ग़म, नफ़ा और नुक़सान सब अल्लाह तआला के फ़ैसले के तहत हैं।

उनकी रज़ा में राज़ी रहना ही अस्ल कामयाबी है।

अल्लाह तआला हमें अपनी मोहब्बत की दौलत अता करें और अपने हर फ़ैसले पर कामिल रज़ा और सब्र की तौफ़ीक़ बख़्शें। आमीन!

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