(रईस खान)
जब दुनिया ताक़त और ताज के पीछे भाग रही थी, मौला अली रज़ि० ने लोगों को सिखाया कि असली ताक़त इल्म है। आपका मानना था कि “इल्म सिर्फ़ ज़ुबान का नहीं, दिल का और अमल का होना चाहिए।”
इल्म का मतलब, रोशनी, जो अंधेरा मिटाए
मौला अली रजि० ने इल्म को “नूर” कहा यानी वह रौशनी जो अक़्ल को जागृत करती है और जहालत को मिटाती है। आपने फ़रमाया, “इल्म दौलत से बेहतर है, क्योंकि इल्म तुम्हारी हिफ़ाज़त करता है, और दौलत की हिफ़ाज़त तुम्हें करनी पड़ती है।”
यह सिर्फ़ जुमला नहीं, बल्कि एक तालीमी दर्शन था, कि अगर इल्म का मक़सद सिर्फ़ कमाई है, तो वो तिजारत है; अगर इल्म का मक़सद इंसाफ़ और इंसानियत है, तो वही असली तालीम है।
नबीﷺ की तरह तालीम देने का तरीका
मौला अली रजि० नबी ﷺ के घर के पलने-बढ़ने वाले थे, यानी इल्म की गोद में पले हुए इंसान। उन्होंने कभी तालीम को मजबूरी नहीं, बल्कि मोहब्बत बनाया। आप बैठकों में, मस्जिदों में, और यहां तक कि जंग के मैदानों में भी इल्म की बातें करते थे। आपका अंदाज़ सिखाने का बड़ा अनोखा था, कभी मिसाल से, कभी सवाल से, कभी खामोशी से।
एक बार किसी ने पूछा, “मौला, इल्म बेहतर है या माल?” आप मुस्कुराए और बोले, “इल्म बेहतर है, क्योंकि इल्म तुझे पहचान दिलाता है, माल तुझे घमंड में डालता है।”
इल्म और इंसाफ़, दोनों के रखवाले
मौला अली रजि० ने इल्म को इंसाफ़ से जोड़ा। आपका कहना था, “इल्म का हक़ तब अदा होता है, जब उसे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाए।” आपने बतौर ख़लीफ़ा, अदालतों में खुद मिसालें पेश कीं, जहाँ इल्म का इस्तेमाल ताक़त नहीं, बल्कि इंसाफ़ के लिए होता था। आप कभी अपने रिश्तेदारों को फ़ायदा नहीं देते, क्योंकि आपका इल्म आपको नैतिक संतुलन सिखाता था।
इल्म का सबक़ और अमल की मिसाल
मौला अली रजि० सिर्फ़ बोलते नहीं थे, बल्कि खुद वो चलती-फिरती किताब थे। आपने लोगों को यह सिखाया कि “इल्म तब तक अधूरा है जब तक वो अमल में न दिखे।” आप गरीबों के साथ बैठते, बच्चों को सिखाते, और हर किसी को सवाल करने की हिम्मत देते।
उन्होंने कहा था, “अपने बच्चों को अपने ज़माने की तालीम दो,क्योंकि वो तुम्हारे ज़माने के नहीं, अपने ज़माने के लोग हैं।” यह बात आज के मॉडर्न एजुकेशन सिस्टम के लिए भी एक सुनहरा उसूल है, कि तालीम को समय और समाज के साथ बदलना चाहिए, मगर उसकी बुनियाद हमेशा “अख़लाक़” पर हो।
इल्म की आमद, हर वर्ग तक
मौला अली रजि० ने इल्म को सिर्फ़ दरवेशों या आलिमों तक सीमित नहीं रखा। आपने कहा, “लोगों को उतना सिखाओ जितना वो समझ सकते हैं, क्योंकि अगर इल्म उनपर भारी पड़ जाए, तो वो उससे नफ़रत करने लगेंगे।” यानी आप तालीम को आसान, खुला और सर्वसुलभ बनाना चाहते थे। यही वजह थी कि आपकी महफ़िल में अमीर भी बैठता था और मज़दूर भी। आपने समाज में यह सोच जगाई कि इल्म किसी दर्जे की मिल्कियत नहीं, सबका हक़ है।
असर, सोचने वाली उम्मत
मौला अली रजि० के बाद जब इस्लामी समाज ने तरक़्क़ी की, तो उसके पीछे उनका यही इल्मी विज़न था। उनकी तालीम से ऐसे लोग निकले जिन्होंने फलसफ़ा, विज्ञान, गणित और नैतिकता में दुनिया को नई दिशा दी। उनकी दी हुई “सोचने की आज़ादी” ही वह चिंगारी थी जिससे बग़दाद और उंदलस की यूनिवर्सिटियां बनीं।
आज का सबक
मौला अली रजि० हमें यह सिखाते हैं कि इल्म का असली काम इंसान को झुकाना नहीं, उठाना है। अगर तालीम से अकड़ बढ़े तो वो जहालत है, अगर तालीम से इंसानियत बढ़े, तो वही असली इल्म है।