(रुमाना परवीन की कहानी, एक औरत की जंग अपने वजूद के लिए)
कभी किसी ने पूछा नहीं कि चौथी पत्नी होने का मतलब क्या होता है। सबने बस गिना, एक, दो, तीन… और फिर मैं। पर मैं भी किसी की बेटी थी, किसी की उम्मीद। मैंने भी ख्वाब देखे थे, घर के, प्यार के, इज़्ज़त के। पर जब वो सब बिखर गया, तो अदालत ही आख़िरी आसरा बन गई।
रुमाना की शादी मौलाना मोहिबुल्ला नदवी से 2012 में हुई। ( अब वह रामपुर से सांसद हैं) वो सोचती थी, “अब ज़िंदगी संभल जाएगी, मैं उनके साथ मिलकर इज़्ज़त की ज़िंदगी जिऊंगी।” लेकिन कुछ ही सालों में हालात बदलने लगे, बातें कम, ताने ज़्यादा; वायदे कम, वजूद पर सवाल ज़्यादा। मारपीट और हमले भी।
रुमाना ने घर को बचाने की बहुत कोशिश की। वो कहती हैं, “मैंने उनके लिए सब छोड़ा, मायका, नौकरी, पहचान तक। पर एक दिन उन्होंने मुझे ही छोड़ दिया, जैसे मैं कभी थी ही नहीं।”
उनके अंदर की औरत टूटी नहीं, लड़ी। वो कहती हैं, “मैंने पुलिस से लेकर अदालत तक दरवाज़ा खटखटाया। लोग बोले, ‘नाम खराब होगा’, पर मेरा नाम तो पहले ही मिटा दिया गया था।” अंततः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा “उन्हें ₹30,000 मासिक भरण-पोषण दिया जाए।”
रुमाना के लिए यह सिर्फ़ पैसे की बात नहीं थी, बल्कि एक स्वीकार्यता थी, कि उसका दर्द सुना गया, उसका हक़ माना गया।वो मुस्कुराई, बहुत हल्की सी मुस्कान, जैसे कोई कह रहा हो, “मुझे अब भी यक़ीन है, इंसाफ़ ज़िंदा है।”
रुमाना आज भी अपने संघर्ष में हैं। पर वो किसी की दया नहीं चाहती वो चाहती हैं सम्मान। उनकी कहानी उन तमाम औरतों की आवाज़ है, जो रिश्तों में टूटकर भी अपने और अपने बच्चों के हक़ की लड़ाई लड़ती हैं।