(रईस खान)
मदीना की गलियों में जब इस्लाम की किरनें फैल रही थीं, उसी दरम्यान एक घर से रौशनी उठी जो आज भी हर घर को रोशन करती है। वो थीं, बीबी फ़ातिमा ज़हरा रज़ियल्लाहु अन्हा, नबी-ए-करीम ﷺ की बेटी, मौला अली रज़ि. की हमराह, और हसन-हुसैन रजि० की माँ।
उनकी ज़िंदगी तालीम की ऐसी मिसाल है जहाँ इल्म सिर्फ़ किताबों का नहीं, बल्कि अख़लाक़, सब्र, और अमल का नाम था।
तालीम की बुनियाद, “इल्म का मतलब अमल से है”
बीबी फ़ातिमा ने कभी अपने बच्चों को सिर्फ़ पढ़ने नहीं कहा, बल्कि जीने का तरीका सिखाया।आपका कहना था कि “इल्म का असली हक़ तब अदा होता है जब वो इंसान के किरदार में नज़र आए।” यानी उन्होंने तालीम को किताब से नहीं, अपने व्यवहार और ख़ुलूस से सिखाया।
रसूलुल्लाह ﷺ की बेटी होने के बावजूद उन्होंने कभी रुतबे का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि अपने घर को “इल्म का मदरसा” बना दिया। वो घर जिसमें नबी ﷺ आते, मौला अली पढ़ाते, और छोटे-छोटे हसन और हुसैन सवाल करते, मदीना में वही घर बन गया तालीम का पहला केंद्र।
घर की तालीम, ज़मीन से जुड़ी, रूह से रौशन
बीबी फ़ातिमा का तालीमी निज़ाम बड़ा सादा था। आप बच्चों को अल्लाह की याद, इंसाफ़, ईमानदारी और रहमदिली सिखाती थीं।आपका कहना था, “बच्चों को पहले अख़लाक़ सिखाओ, फिर इल्म, क्योंकि बिन अख़लाक़ इल्म सिर्फ़ बोझ बन जाता है।”
उन्होंने हसन और हुसैन रजि० को न सिर्फ़ क़ुरान की तालीम दी, बल्कि लोगों के साथ मुहब्बत और रहम का सबक़ भी सिखाया। आप खुद रातों में गरीबों के घर खाना भेजतीं, बच्चों को साथ लेकर ज़रूरतमंदों की मदद करतीं। यानी उनके लिए तालीम इबादत और समाजसेवा का संगम थी।
बीबी फ़ातिमा रजि० और औरतों की तालीम
बीबी फ़ातिमा रज़ि० औरतों के लिए पहली शिक्षिका थीं। उनकी कई औरतों से बैठकी होतीं जहाँ वे घर, बच्चों, अख़लाक़ और ईमान पर बातें करतीं। आप औरतों को सिखातीं कि तालीम सिर्फ़ मर्दों का हक़ नहीं, बल्कि हर औरत की ज़रूरत है। वो कहा करती थीं, “जो औरत अपने बच्चों को इल्म और अख़लाक़ देती है, वो पूरी क़ौम को तरक़्क़ी देती है।”
उनके इस तालीमी नज़रिए ने इस्लामी समाज में औरतों को पढ़ने-सिखाने का हक़ और हौसला दिया। यही वजह है कि बाद में उम्मुल मोमिनीन और अहले बैत की ख़वातीन इल्म की मशाल बनकर उभरीं।
इल्म की विरासत, अहले बैत की तालीम की नींव
बीबी फ़ातिमा का असर इतना गहरा था कि उनके बच्चों हसन और हुसैन से लेकर इमाम ज़ैनुलआबिदीन तक हर एक ने इल्म और इंसाफ़ की मशाल उठाई। आपने अपने घर को अख़लाक़, सब्र और इल्म का दरसगाह बना दिया। वहीं से अहले बैत में वह तालीमी परंपरा शुरू हुई जिसने बाद में पूरी उम्मत को राह दिखाई।
उनकी यह तालीम सिर्फ़ दुनिया के लिए नहीं, आख़िरत के लिए भी थी। वो कहतीं, “इल्म वह अमानत है जो दिल में उतरती है, और अमल के बिना वह अधूरी रहती है।”
बीबी फ़ातिमा रजि० का असर, आज भी ज़िंदा है
आज अगर इस्लामी तालीम में अख़लाक़, तहज़ीब और इंसानियत की बात होती है, तो उसकी बुनियाद उसी घर में रखी गई थी, जहाँ एक माँ ने अपने बच्चों को यह सिखाया कि “इल्म सिर उठाने के लिए नहीं, सिर झुकाने के लिए होता है।”
बीबी फ़ातिमा ज़हरा रज़ि० की तालीम आज भी हमें याद दिलाती है कि असली शिक्षा डिग्री या किताब में नहीं, बल्कि दिल की सफ़ाई, अमल की सच्चाई, और दूसरों की भलाई में है।